बांस की एक पतली सी डंडी
कई छेदों के घाव लिए
दर्द में पुकारती है जब
अपने प्रेम परमेश्वर को
साँसें बज उठती हैं उसकी
धुन लहराने लगती है
हवाएँ मचल-मचल उठती हैं
कृष्ण थाम लेते हैं उसे
अपने कोमल हाथों में
लगा लेते हैं अपने अधरों से
और दर्द बदल जाता है
प्यार में, सुकून में, समर्पण में
और वह बांस की कोमल,
साधारण सी दिखने वाली डंडी
कृष्ण के होठों से लगकर
बन जाती है बंसी विश्वास की
थिरकती मुरली प्यार की
जिसकी हर छिद्र से निकलती है
रागिनी,आस्था, राधा, मीरा..
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