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Writer's pictureArchana Anupriya

"सरहद की राखी"

               

जंग के लिए दुश्मन अड़ा था,

सरहद पर कोई भाई खड़ा था,

व्यथित  थी  भारत मां हमारी,

मन  तो  दुविधा  में  पड़ा  था...


सोच रही थी वो मन ही मन-

"द्वार  खड़ा  है  रक्षा-बंधन,

घर  नहीं  भाई  जा  पायेगा,

बहन का सूना रहेगा आंगन.."


दूर बहन कहीं राखी लेकर,

सोच रही थी, द्वार पे बैठकर,

साथ ले रोली, दीप, मिठाई,

खूब नाचेगी भाई को देखकर..


तभी संदेशा भाई का आया-

"देश पर जंग का संकट छाया,

बहन ! नहीं  मैं  आ  पाऊँगा,

क्षमा,जो तेरे दिल को दुखाया.."


सुनकर बहन एक पल मुरझायी,

फिर, मुख पर इक स्मित आयी,

गर्व  से  चेहरा  उठाकर  बोली-

"फख्र  है  तुझपर  मेरे  भाई..!


पर्व नहीं, कर्तव्य ही करना,

देश का मान मूर्धन्य ही रखना,

अपना  झंडा  झुके  कभी ना,

विजय हमेशा ही गंतव्य रखना..


क्या हुआ अगर तुम आ न सकोगे,

मां  भारती  के  संग  तो  रहोगे,

जहाँ  भी  हो, आशीष  तुम्हें  है,

देश  को  अपने  विजयी  करोगे..


मुझे  राखी  का  नेग  ये  देना,

एक भी शत्रु का शीश बचे ना,

वतन का एक भी टुकड़ा न हारें,

जान  भले  ही  तुम  दे  देना..


स्नेह की डोर बाँधती हूँ यहीं से,

तिलक हो भाल पर विजय-रोली से,

अक्षत बन आशीष जन-जन का,

मिले  तुझको, तू  हारे  कभी  ना.."


सुनकर व्याकुल बहन की वाणी,

देख  अपनी  संतान  को  'मानी',

विह्वल  हो  गयी  भारत  माता,

भाईयों  ने  भी  फतह  की ठानी..


देख  देश-प्रेम  भाई-बहन  का,

गर्वित  है  पर्व  रक्षाबंधन  का,

झूमने लगा तिरंगा फलक पर,

सीना  चौड़ा  हुआ  वतन का..।                      

©अर्चना अनुप्रिया




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