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Writer's pictureArchana Anupriya

"कागज के टुकड़े"


 

सुबह से ही घर में हंगामा था।सारी सोसायटी के लोग महेशनाथ जी के घर के आगे जमा हो रहे थे। कल रात कोई चोर महेशनाथ जी की तिजोरी ही चुराकर ले गया था। सभी जानते थे कि वह तिजोरी महेशनाथ जी को कितनी अजीज थी।हर वक्त वह उसे अपनी नजर के सामने रखते थे।घर के किसी भी सदस्य को उसे छूने तक की इजाजत नहीं थी।बिना पूछे उनके कमरे में आने जाने तक की मनाही थी। लेकिन, आज तो उनके कमरे का नजारा ही बदला हुआ था।लोग कमरे में भरे पड़े थे और सभी एक -दूसरे से पूछने में लगे थे कि क्या हुआ, कैसे हुआ… वगैरह वगैरह..।

महेशनाथ जी के दोनों बेटे -बहू रह-रहकर अपनी किस्मत को कोस रहे थे। बड़ी बहू ने कहा--”मुझे तो पहले ही पता था कि तिजोरी में करोडों रुपये भरे हुए हैं। पिताजी जब भी इसे खोलते थे तो कमरे का पंखा बंद करवा देते थे...डरते होंगे कि रुपये कहीं उड़-उड़कर बाहर न आ जायें….अरे, हमें दे देते तो क्या बिगड़ जाता...यहाँ मर-मरकर पाई-पाई जमा करते हैं, तब जाकर किसी तरह घर का खर्च निकल पाता है….अपने ही खून हैं हम, कोई गैर थोड़े ही न हैं… आखिर चोर ले गया तो पड़ गई न कलेजे में ठंडक....हुँ..।”

जेठानी की बातें सुनकर छोटी बहू कहाँ पीछे रहने वाली थी।कहने लगी--”नहीं जीजी, मुझे तो लगता है, उसमें गहने रखे थे।आखिर माताजी के जाने के बाद उनके सारे गहने कहाँ गए..? पिताजी तो बैंक जाते नहीं हैं… तिजोरी तो इतनी भारी थी कि एक बार सफाई के लिए पिताजी ने उसे दो आदमियों से उठवाया था। करोड़ों के सोने- चाँदी,हीरे के गहने होंगे उसमें… यहाँ पहनने के लिए एक ढंग की सोने की चूड़ी भी नहीं है… हमारे लिए ही संजोया था तो हमें दे देते.. कम से कम अपना शौक तो पूरा कर लेते हम..कल को बेटे-बेटियाँ ब्याहने हैं, उनके काम आ जाते...।इस घर में ब्याह करके हमें क्या मिला? दिन भर बस चौका चूल्हा करते रहो..। पिताजी ने हमारे साथ बिल्कुल सौतेले जैसा व्यवहार किया है।अब चोर ले गया तिजोरी, तो क्या कर लेंगे वह ?..हाय-हाय हमारी तो किस्मत ही खराब है जो इस घर में शादी करके आये..।”

अपनी पत्नियों का रोना धोना देखकर दोनों बेटे उन्हें सांत्वना देने लगे।उनसे भी रहा नहीं गया। अपने पिताजी को सीख देने लगे --”पिताजी, आजकल रुपये-गहने कोई घर में रखता है क्या ?आपको तो हमलोगों के ऊपर विश्वास ही नहीं है...हमें दे देते तो हम बैंक के लॉकर में रख देते… ये उमर आपके भजन करने की है..घूमिए, टहलिए, दोस्तों से मिलिए… दिनभर पैसे पकड़कर बैठना क्या अच्छा लगता है ?सही तो कह रही हैं आपकी बहुएँ… हम में बाँट देते तो हम अपना भविष्य अच्छा कर सकते थे...अब सब चोर उठाकर ले गया तो क्या मिला..?.. बताइए..? हमें तो जरा सी बात पर डाँट देते हैं… अब आपने इतनी बड़ी गलती की तो उसका क्या..?..सचमुच, हमारे साथ बड़ा अन्याय किया है आपने।”

बेटे-बहू की बातें सुनकर मुहल्ले वालों में भी कानाफूसी शुरू हो गई थी। सभी घुमा-फिराकर महेशनाथ जी को ही दोष दे रहे थे--” सठिया गए हैं चाचाजी, इतने लायक बेटे-बहू कहाँ मिलते हैं आजकल..? चाचाजी को उनके साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था..।अरे, धन अपना होता है कि बच्चे..? आखिर बच्चों के लिए ही तो दौलत जोड़ता है इन्सान… उनमें बाँट देते तो अच्छा नहीं होता क्या ?बेटे-बहू कितना करते हैं उनके लिए...बेचारी बहुएँ..एक पैर पर खड़ी रहती हैं दिन-रात...कोई और होता तो सारी दौलत लुटा देता ऐसे बच्चों पर...लेकिन चाचाजी को दौलत का मोह किस कदर जकड़े हुए है इस उमर में...हे भगवान..!..कैसे-कैसे लोग होते हैं दुनिया में...।”

सबकी बातें सुनकर महेशनाथ जी के पुराने नौकर , सेवकराम को अच्छा नहीं लगा। वह लोगों को बाहर जाकर बैठने के लिए कहने लगा।धीरे-धीरे लोग बाहर निकलने लगे। सेवकराम ने महेश बाबू को समझाना शुरू किया --”मैं तो कब से कह रहा था कि तिजोरी-विजोरी भैया -भाभी को सौंप कर हरिद्वार चलिए, पर आप मेरी सुनते ही कहाँ है ? माताजी भी कहते-कहते थककर चली गईं, पर पता नहीं देर रात तक जाग-जागकर क्या संजोते रहते हैं आप तिजोरी मेंं ?अब चोर उठाकर ले गया सब….लोग दुनिया भर की बातें कर रहे हैं… भैया-भाभी आपसे दुःखी हैं-- इन सबसे क्या मिल गया आपको? आप खुद भी तो दुःखी होंगे… आज माताजी होतीं तो सोचिए, क्या गुजरती उनपर..?”

इन सारे तहलकों के बीच यदि कोई बेफिक्र और निश्चिंत था तो वो थे..महेशनाथ जी।उन्हें अफसोस जरूर था कि उनके जीवन भर की पूँजी चोर चुराकर ले गए थे पर आज एक बड़ी  सीख मिली थी कि कैसे दुनिया में आदमी अकेला आता है और अकेला ही जाता है--बेटे-बहू, रिश्ते-नाते, मित्र-सब बस अपनी -अपनी सोचते हैं..कुछ भी कर लो पर लोगों को दौलत की ही फिक्र ज्यादा होती है, इन्सान की नहीं… कम ही लोग ऐसे हैं, जो अपनी और दौलत की परवाह किए बगैर परिवार और लोगों की भलाई में लगे रहते हैं। उन्हीं लोगों में से एक थी-उनकी पत्नी, सुमिता।आज अपनी पत्नी की कमी उन्हें बहुत खल रही थी। सभी तिजोरी के लिए परेशान थे परन्तु किसी ने ये नहीं पूछा कि चोर ने आपको कोई चोट तो नहीं पहुँचाई न ?...आप ठीक तो हैं न ?...सुबह से कुछ खाया कि नहीं?...अपनी दवाई ली कि नहीं?....सुमिता होती तो सबसे पहले यही तो पूछती..।

बाहर सबकी कानाफूसी और हाय-तौबा का दौर अभी तक जारी था। लोगों ने राय दी कि पुलिस में शीघ्र ही खबर कर दी जाय। आखिर करोड़ों का सवाल है,ऐसे थोड़े ही छोड़ा जा सकता है...। तय हुआ कि बड़ा बेटा मुहल्ले के कुछ लोगों के साथ महेशनाथ जी को लेकर थाने जायेगा। महेश जी का जाना जरूरी था क्योंकि तिजोरी की विस्तृत जानकारी वही दे सकते थे। सब मिलकर महेशनाथ जी के कमरे में पहुंचे। सेवकराम से कहा गया कि पिताजी को दूसरी धोती और जूते पहना दे और उनकी छड़ी लाकर दे दे, तुरंत निकलना है। सुनकर सेवकराम बक्से से धोती निकालने लगा परन्तु महेश जी ने थाने जाने से मना कर दिया। उनका कहना था कि उनके बरसों की तपस्या रखी थी उस तिजोरी में, अगर उनकी तपस्या में शक्ति है तो चोर स्वयं ही आकर उनसे क्षमा माँगेगा...पुलिस के चक्कर में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। उनकी यह बात सुनकर बेटा बिफर गया--”अजीब करते हैं आप, पिताजी.. ये भी कोई बात हुई..? वो चोर क्यों वापस आयेगा भला..?..हम सबको दुनिया भर की सीख देते रहते हैं और खुद एक नागरिक का फर्ज निभाने की बारी आई तो पीछे हट रहे हैं..?”

बहुओं ने सुना तो भागती हुई अंदर कमरे में आईं--”ये क्या पिताजी.?. इतनी दौलत ऐसे थोड़े ही न छोड़ देंगे..? पुलिस में जल्दी खबर नहीं की तो समय पाकर चोर तो कितनी दूर निकल जायेगा, फिर तो कुछ भी मिलने से रहा..?”

लोगों में फिर से कानाफूसी शुरू हो गई--” सचमुच, बुढ़ापे में दिमाग काम नहीं करता है आदमी का...भला सोचो..ये क्या बात हुई.?..कहीं ऐसा तो नहीं कि चाचाजी को शॉक लग गया है, इसीलिए ऐसी बातें कर रहे हैं..?काठ मार गया लगता है...ऐसे में कितनों का दिमाग खराब होते देखा है हमने”--एक- एक कर सभी अपने-अपने अनुभव बताने लगे। कुछ औरतों को सहानुभूति सी हो गई। वे बहुओं को अलग से बुलाकर समझाने लगीं--”जब ऐसा शॉक लग जाये तो जरूरी है कि उस आदमी को थोड़ा रुलाया जाये...रोने से अंदर का गुबार निकल जाता है और आदमी नॉर्मल रहता है।” अब समस्या खड़ी हुई कि कैसे रुलाया जाये..?पिताजी कोई बच्चे तो हैं नहीं।कुछ अनुभवी औरतें इस समस्या का समाधान ढ़ूढ़ने में लग गयीं। महेशनाथ जी तक भी यह बात पहुंची। “इतने तमाशे से तो अच्छा है ,मैं इनलोगों के साथ थाने चला जाऊँ,”--उन्होंने मन ही मन में सोचा और धोती बदलने के लिए अभी उठने ही वाले थे कि बाहर कुछ शोर सा सुनाई दिया--”अरे पकड़ो इसे… नालायक… तेरी हिम्मत कैसे हुई…”,बेटे-बहू आवाज सुनकर बाहर की ओर लपके। महेशनाथ जी अभी कुछ समझ पाते या पूछ पाते तब तक उन्होंने देखा कि दो शख्स उनकी तिजोरी उठाए कमरे की तरफ चले आ रहे हैं, पीछे-पीछे मुहल्ले वाले और लपकते हुए बहू-बेटे...। छोटी बहू ने कहा--”मैंने तो कहा ही था कि गहनों से भारी है तिजोरी, भला चोर कितनी दूर लेकर भाग सकता था..?..तिजोरी न तो खुली होगी, न ही टूटी होगी नालायक से, सो करता क्या..?रास्ते में ही छोड़कर भाग गया होगा...भला हो इन दोनों भाईयों का, जो घर तक सही सलामत पहुँचाने आए..।”तब तक उन दोनों ने तिजोरी जगह पर रख दी थी। बेटे-बहू की तो जान में जान आ गई। अभी वे कुछ पूछते इससे पहले ही वे दोनों शख्स महेशनाथ जी के चरणों में गिर पड़े--”हमें माफ कर दीजिए बाबूजी, हमसे भूल हो गई थी..हम रास्ता भटक गए थे, इसीलिए चोर बन गए थे...मौका देखकर हम खिड़की से अंदर आए और आपकी तिजोरी उठाकर चल दिए...पर आपके विचारों ने हमें रास्ता दिखाया, गलती का अहसास कराया..अब हम अपने किये पर शर्मिंदा हैं… आगे से ऐसा कुछ नहीं करेंगे।” “क्या…!..तुम दोनों ही चोर हो”-- बेटे ने पूछा। “हाँ भैयाजी हमसे गलती हो गई..”--चोर ने जवाब दिया। यह जानते ही कि वे दोनों ही चोर हैं ,पूरी भीड़ उन दोनों को मारने पर उतारू हो गई, पर महेशनाथ जी बीच में आए और सबको शांत रहने को कहा। सबकी राय हुई कि तिजोरी खोलकर देखा जाए, कुछ भी गायब हुआ तो इन दोनों को पुलिस में दे देंगे। तिजोरी खोली गई.. सब अपनी आँखों से करोडों रुपये और गहने देखने को उतावले थे। लेकिन, यह क्या..? तिजोरी में तो कागज भरे पड़े थे। सबकी आँखें आश्चर्य में डूबी थीं। स्याही से रंगे कागज कोई तिजोरी में  क्यों रखेगा ?किसी ने कहा--”अरे, जमीन-जायदाद की वसीयत होगी..।” इतना सुनना था कि भीड़ फिर से उतावली होकर देखने लगी--”इतनी जमीन थी चाचाजी के पास ? फिर तीन कमरों के इस छोटे से घर में क्यों रहते हैं, बड़ा घर क्यों नहीं ले लेते?” बेटे-बहू वसीयत के कागजात देखने के लिए उतावले हुए जा रहे थे।उन्होंने एक-एक कर सारे कागज देख लिए पर किसी में भी वसीयत लिखी नहीं दिखी...किसी में कविताएँ, किसी में कहानियां, किसी में दार्शनिक विचार….”ये क्या है पिताजी?”-आश्चर्य में डूबे बेटे ने पूछा। अब महेशनाथ जी की बारी थी। बड़े ही शांत भाव से उन्होंने कहना शुरू किया--”मैं हमेशा से एक लेखक और कवि रहा हूँ। यह लेखनी ही मेरी पूँजी है। रात-रात भर जाग-जागकर मैं अपने अनुभव और दिल में छुपे चिंतन के भाव लिखता रहा हूँ। तुम्हारी माँ के जाने के बाद ये कलम और लेखन ही मेरे साथी हैं। अपने ह्रदय की हर बात, दुनिया की अच्छाई, बुराई, संस्कारों की बातें--सब मैंने इन कागजों पर उकेरने की कोशिश की है ताकि मेरे बाद जब बच्चे इसे पढ़ें तो उन्हें सही और गलत का अंतर पता चल सके, सही मार्गदर्शन मिले और उन सभी सवालों के जवाब भी, जो परेशानियों में रास्ता भटका सकते हैं। कविताओं में वो संस्कार छुपे होते हैं, जो इन्सान को सह्रदय बना सकें। मशीनी दुनिया के लिए यह बहुत जरुरी है बेटा...हम इन्सान हैं, जीवन जीने आये हैं, दौलत इकठ्ठी करने नहीं। मैं अपने बेटों को, पोते-पोतियों को संस्कारों की वसीयत देना चाहता हूँ, दौलत तो वे खुद कमा लेंगे। मुझे अपनी लेखनी पर भरोसा था, तभी मैं थाने जाने से इन्कार कर रहा था। देखो..मेरे विचारों को पढ़कर इन दोनों चोरों के मन बदल गए। मुझे खुशी है कि रात भर जागकर लिखना काम कर गया।”चोरों ने कहा--”हाँ बाबूजी, जब हमने आपके विचार पढ़े तो हमें अपने ऊपर शर्म आने लगी..हमें लगा कि गलत रास्ते पर चलकर कभी सही मंजिल नहीं मिलेगी, समय रहते हम रास्ता बदल लें, यही हमारे लिए ठीक रहेगा। हमलोग बुरे नहीं हैं बाबूजी, दौलत की लालच और परेशानियों ने हमें गलत रास्ता दिखा दिया...लेकिन आगे से ऐसा नहीं करेंगे, हम वादा करते हैं।” महेशनाथ जी भावुक हो रहे थे और मन ही मन में संतुष्ट भी। बोले--”चलो, मेरी कलम ने कम से कम एक-दो को तो सही राह दिखा दी।शायद आगे और लोग भी पढ़कर सही मार्ग अपनाने को विवश हो जायें। लेखकों के पास रुपये, गहने की दौलत कहाँ होती है और उनका वे करेंगे क्या? लेखकों और कवियों के पास तो विचारों और संस्कारों की दौलत होती है, जो कभी खत्म नहीं होती…..लोगों को भले उनकी दौलत दिखाई नहीं देती पर उनमें युग के युग बदलने की ताकत होती है।” सुनकर बेटे-बहू सहित सारे मुहल्ले वाले मुँह बनाने लगे--"लो, खोदा पहाड़ और निकली चुहिया। हम सब परेशान थे किसके लिए और मिला क्या..?..चलो भाई, सब अपने-अपने घर चलें, बहुत काम पड़ा है….।”सब बड़बड़ाते हुए एक-एक कर जाने लगे। बेटे ने कहा--”यह क्या पिताजी, तिजोरी तो आप ऐसे सँभालते थे कि पता नहीं क्या है उसमें..?आज का पूरा दिन खराब हो गया।ऑफिस पहुँचने में देर हो गयी तो डाँट सुननी पड़ेगी, वो अलग”....”पिताजी पहले बता देते तो हम अपना काम तो निपटा लेतीं, अभी तक चौका-बरतन सब वैसे ही पड़ा है”--बड़बड़ाते हुए बेटे-बहू भी कमरे से निकल गए। दोनों चोर बार-बार माफी माँग रहे थे और महेशनाथ जी से अच्छे मार्गदर्शन के लिए आग्रह कर रहे थे। महेशनाथ जी कभी तिजोरी देखते तो कभी खुले दरवाजे को, जहाँ से अभी-अभी उनके बेटे-बहू निकल कर गए थे। वह मन ही मन में सोच रहे थे कि क्या दुनिया में सिर्फ उन्हीं कागजों का महत्व है जिनमें वसीयतें लिखी होती हैं या वे कागज भी अनमोल हैं, जिनमें समाज और देश के संस्कार बदलने की ताकत हैं…?

©अर्चना अनुप्रिया


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