अयोध्या को प्राचीन धार्मिक सप्तपुरियों में से एक माना जाता है। सरयू नदी के तट पर बसी अयोध्या नगरी एक प्राचीन तीर्थ है,जिसका उल्लेख रामायण में मिलता है-- "अयोध्या नाम नगरीतत्रासील्लोकविश्रुता"।
मनुना मानवेंद्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् ।। (रामायण१-५-६)
कहते हैं यह नगरी सूर्य के पुत्र,वैवस्वत मनु द्वारा स्थापित की गई थी और यह विष्णु के चक्र पर बसी हुई है। (स्कंदपुराण)
यह अयोध्या शब्द 'अयुद्धा' का वर्तमान स्वरूप है, जिसका अर्थ होता है "जहाँ युद्ध न हो" या "जिसे युद्ध से जीता न जा सके"। प्राचीन काल में अयोध्या को "अवध" भी कहा जाता था, जिसका अर्थ था- 'जहाँ वध न हो' अर्थात ऐसा स्थान जो युद्ध और वध से परे हो, ईश्वरीय हो, देवताओं की नगरी हो... "अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या"(अथर्ववेद)।
आज अयोध्या को रामजन्म भूमि के प्रसंग की वजह से जाना जाता है ,परन्तु,देखा जाए तो इस प्राचीन शहर का एक जबरदस्त इतिहास है और भारतीय संस्कृति के विकास में इसकी अत्यंत ही महत्वपूर्ण भूमिका है। इस दृष्टि से अयोध्या को ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत के रूप में देखा जाना चाहिए।"ग्रह मंजरी" जैसी प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकु वंश का स्थापन-काल 2200 ई.पूर्व के लगभग माना जाता है जो अयोध्या में हुई और जिसके 63वें पीढ़ी के शासक राजा दशरथ हुए। जैन परंपरा के अनुसार 24 तीर्थंकरों में से 22 तीर्थंकर इक्ष्वाकु वंश के ही माने जाते हैं। सर्वप्रथम तीर्थंकर, आदिनाथ ऋषभदेव जी तथा चार अन्य तीर्थंकरों का जन्म स्थान भी अयोध्या ही माना जाता है। बौद्ध धर्म के महात्मा बुद्ध ने भी अयोध्या में 16 वर्षों तक निवास किया था। प्राचीन भारत के रामानंदी संप्रदाय का मुख्य केंद्र भी अयोध्या ही था।इस तरह देखें तो अयोध्या कई संप्रदायों का प्रमुख स्थान हुआ करता था। अयोध्या का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व इस बात से भी सिद्ध होता है कि प्राचीन भारतीय तीर्थों के उल्लेख में अयोध्या का नाम ही सर्वप्रथम आता है-- "अयोध्या,मथुरा, माया, काशि, काँची, ह्यवंतिका, पुरी, द्वारावती सप्तैता मोक्षदायिका।"
रामायण के बालकांड में अयोध्या नगरी को 12 योजन लंबी और 3 योजन चौड़ी बताया गया है जबकि सातवीं सदी के चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इसे 'पिकोसिया' नाम से संबोधित किया है और इसकी परिधि 16 ली (1ली= ⅙ मील) बताई है।"आईने अकबरी" में इसकी लंबाई 148 कोस और चौड़ाई 32 फुट कही गई है।त्रेतायुग में रामचंद्र जी से लेकर द्वापर के महाभारत और उसके बहुत बाद तक इसका उल्लेख मिलता है। बाद में रामचंद्र जी के पुत्र लव ने श्रावस्ती नगरी बसा ली।तत्पश्चात यह नगरी मगध के मौर्यों और गुप्ता और कन्नौज शासन के शासकों के अधीन रही। बाद में महमूद गजनी के भांजे, सैयद सालार ने यहां तुर्क शासन की स्थापना की। फिर,तैमूर के बाद जब शकों का राज्य स्थापित हुआ तब अयोध्या शकों के अधीन में आ गया,खासकर महमूद शाह के शासनकाल 1440 ईस्वी में। 1526 ईसवी में बाबर ने मुगल राज्य स्थापित किया और 1528 ईसवी में अयोध्या पर आक्रमण कर अपना कब्जा जमा लिया। 1580 ईस्वी में जब अपने साम्राज्य को अकबर ने 12 सूबों में विभाजित किया तब एक 'अवध' नाम का सूबा बनाया गया जिसकी राजधानी अयोध्या बनी। अयोध्या के प्रामाणिक इतिहासकार, लाला सीताराम 'भूप' ने अपने नाम के आगे हमेशा 'अवधवासी' लगाया। उनकी पुस्तक 'अयोध्या का इतिहास' आज भी सर्वाधिक सर्वमान्य है।1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद बहुत से स्वतंत्र क्षेत्रीय राज्य बने जिसमें अवध का स्वतंत्र राज्य भी स्थापित हुआ।वाजिद अली शाह अवध के अंतिम नवाब थे। 1856 ई.में यह अंग्रेजो के कब्जे में चला गया और 1947 ईस्वी में भारत की आजादी के बाद भारतीय संविधान के संघीय ढांचा के अंतर्गत उत्तर प्रदेश राज्य का एक प्रमुख शहर बना।
अयोध्या की सांस्कृतिक विरासत आरंभ होती है सूर्य वंश के इक्ष्वाकु राजाओं से जिस की वंश परंपरा में राजा रघु नाम के एक प्रतापी राजा हुए और उन्हीं की तीसरी पीढ़ी में राजा रामचंद्र जी का जन्म हुआ। भारतीय संस्कृति में राजा राम भगवान का अवतार माने गए हैं और उनका रामायण काल भारतीय संस्कृति के सबसे गौरवशाली काल के रूप में याद किया जाता रहा है। इस काल में न केवल मर्यादाओं की नींव रखी गई बल्कि यह युग राम राज्य के रूप में भारतीय जनमानस में एक आदर्श राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था के रूप में भी अपना स्थान बनाता है। इस काल में अनेक पवित्रतम ग्रंथों और पवित्र साहित्य की रचना के माध्यम से भारतीय संस्कृति और सभ्यता को स्थापित किया गया।इस युग के राजा प्रजा के प्रति पूर्ण रूप से उत्तरदायी होते थे। श्रीराम द्वारा प्रजा के विश्वास प्राप्ति के लिए अपनी पत्नी सीता तक का परित्याग इस राजधर्म का सर्वोत्तम उदाहरण है। यही नियम आगे चलकर लोकतंत्र की स्थापना में सहायक हुआ। इस दृष्टि से अयोध्या का जबरदस्त योगदान माना जा सकता है।इसी काल के विषय में रचित 'रामायण' और 'रामचरितमानस' जैसे महान ग्रंथों ने भारतीय संस्कृति को 'भय बिनु होय न प्रीति' जैसे मंत्र दिए जो यह सिद्ध करते हैं कि शांति के लिए शक्ति का होना आवश्यक है। अयोध्या के राम हमें अन्याय से लड़ना, समय के साथ चलना और मर्यादा में रहकर वर्चस्व हासिल करना सिखाते हैं। जाति, धर्म जैसी विभिन्नताओं से ऊपर उठकर अन्याय का प्रतिकार कैसे किया जाता है,कैसे छोटे-बड़े, अमीर-गरीब- सभी को साथ लेकर चला जा सकता है यह शिक्षा हमें अयोध्या नगरी के राजाओं से मिलती है।आधुनिक समय में भी गंगा-जमुनी तहजीब का प्रत्यक्ष उदाहरण है अयोध्या की संस्कृति, जहाँ विभिन्न धर्म और विभिन्न संस्कृति के लोग एक साथ मिलजुल कर रहते हैं। हिंदू भगवान के वस्त्र, आभूषण आदि मुस्लिमों द्वारा बनाए जाते हैं और मुस्लिम त्यौहार में हिंदू भी साथ और एकजुट होते हैं। यहाँ तक कि राम जन्म भूमि पूजन के अवसर पर पहला निमंत्रण पत्र भी इकबाल अंसारी ना के एक मुस्लिम व्यक्ति को भेजा गया था।
अयोध्या प्राचीन काल से लेकर आज तक अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परंपरा को निभा रहा है। यह विश्वास को विद्यमान से, नर को नारायण से,वर्तमान को अतीत से जोड़ता है और भारतीय संस्कृति और संस्कारों को एक नए आयाम पर ले जाने के लिए मार्गदर्शन देता है। अयोध्या के राम ने ही संदेश दिया था कि मातृभूमि हर रिश्ते, हर संबंध से ऊपर है; सबको साथ लेकर चलने से ही राज्य की शक्ति बढ़ती है;जो राज्य शक्तिशाली है वही शांति से रह सकता है और अपनी शरण में आने वालों का रक्षण कर सकता है। उनका यह संदेश और प्राचीन ग्रंथों में 'सप्तपुरी' होने का गौरव अयोध्या को ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से हम भारतीयों का मार्गदर्शक बनाता है।
©अर्चना अनुप्रिया
मासिक पत्रिका"गृहस्वामिनी" के अगस्त अयोध्या अंक में प्रकाशित...
लिंक...
http://www.grihaswamini.com/ayodhya-5/
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