राजा दशरथ की चहेती रानी, मैं कैकेयी बड़ी उदास हूँ..
ईश्वर को वन-वन भटकाया, मैं वो कलुष इतिहास हूँ...
थी बड़ी अभागी किस्मत मेरी,विधाता ने वो खेल रचा..
मुझे इतिहास के पन्नों में,तिरस्कृत-पात्र के लिए चुना..
राम मुझे भी प्रिय बहुत थे,फिर भी एक माया हावी थी..
तनुज भरत के राजपाट की, दो वरदान ही चाबी थी..
दशरथ चकित, स्तब्ध हुए, जब मैंने उनसे वर माँगा..
मूर्च्छित होकर गिर पड़े,जब 'राम' खोने का डर जागा..
यही बात मुझे पीड़ा देती,भरत उन्हें क्या प्रिय न था ?
वचन देकर भी मुकर रहे थे,क्या मेरे साथ षड्यंत्र न था?
देवासुर संग्राम में मैंने ही, अरि से उनके प्राण बचाये..
उन्हीं के कुल की रीति थी,प्राण जाये पर वचन न जाये..
माँ हूँ अगर तो क्यों न सोचूँ,अपनी संतति का हित मैं?
कहाँ गलत हूँ यदि चाहती,पुत्र का भविष्य सुरक्षित मैं?
राम भरत के पक्षधर थे फिर एकतरफा ये निर्णय क्यों?
भरत जब ननिहाल गए थे,राजतिलक उसी समय क्यों?
राम का वन जाना भी तो नियति की एक मजबूरी थी..
राम-रावण की जंग देखो तो लोकहित में जरूरी थी..
दुष्टों का उत्पात बहुत था,उनका प्रतिकार करता कौन?
राम यदि अवध में रहते,दुष्टों का संहार करता कौन?
था पछतावा मुझे बहुत ही,राम से क्षमा भी माँगी थी..
भरत भी क्षुब्ध था मुझसे,क्यों स्वार्थी इच्छा जागी थी..
कदाचित लोकहित हेतु, नियति ने यह अध्याय रचा..
लीला की विधाता ने पर इतिहास में मुझे तिरस्कार मिला..
दबे बुनियादी पत्थर ही तो विशाल अट्टालिकाएँ रचते हैं..
सुंदर उत्कीर्णन हेतु हर पत्थर कितनी चोटें सहते हैं..
संतुष्ट हूँ इस बात से मैं कि काल ने जो इतिहास बुना..
मर्यादा पुरुषोत्तम बनाने हेतु ईश्वरीय क्रीड़ा ने मुझे चुना..
©अर्चना अनुप्रिया।
सौजन्य.. काव्य संग्रह "वामा लोक"
Comments