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Writer's pictureArchana Anupriya

"कितने अजीब हैं हम..!"

बड़े चाव से रसोई में हम

आटे की लोई से रोटी बेल कर

सपनों को आकार देते हैं..

हरी, लाल सब्जियों में

तड़का लगाकर, प्रेम की

खुशबू से घर सँवार लेते हैं..

पर, भूल जाते हैं हम हमेशा

खुद को ही आकार देना,संवारना

कितने अजीब हैं न हम..?


पाई-पाई जोड़-जोड़ कर

दिन-रात एक कर के

सबकी पूरी करते हैं जरूरतें..

नींदों में भी हमारी आँखों में

परिवार की खुशियों की ही

भरी रहती है सैकड़ों हसरतें..

फिल्म देखने की छोटी इच्छा भी

अपनी चुपचाप दफन कर लेते हैं

कितने अजीब हैं न हम..?


हल्का सा दर्द भी हो किसी को

तो नजर उतार कर सब की

बुरी बलाएँ खुद पर ले लेते हैं..

चाहे छोटी सी ही मुसीबत हो

किसी को जरा आँच भी आए

तो सबसे आगे खड़े होते हैं..

पर,जरा अपनी मर्जी से जीना चाहें

तो उतर जाते हैं हर दिल से हम

कितने अजीब हैं न हम..?


शिक्षित हों या न हों हम

गृहस्थी की बड़ी-बड़ी गुत्थियाँ

सुलझा लेते हैं पल भर में..

बच्चों की शादियाँ हो,पढ़ाई हो

या मेहमान का हो आना-जाना

संभाल लेते हैं सब छू-मंतर से..

बस नहीं सवार पाते हैं अपनी

उलझी जुल्फें और बिखरे चेहरे

कितने अजीब हैं न हम..?


अलग-अलग जज्बातों वाले

सारे रिश्ते-परिवार को हम

बांधकर रखते हैं प्रेम की डोर से..

मायके से लेकर ससुराल तक

हर जिम्मेदारी की पोटली को

बांधे रखते हैं पल्लू की छोर से..

जरा भी चूके तो ताने सुनते हैं

चुपचाप छुपाते हैं अपनी तकलीफें

सचमुच कितने अजीब हैं हम..।


अर्चना अनुप्रिया

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