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Writer's pictureArchana Anupriya

"क्या है माँ होना?"

"क्या है माँ होना?"


मातृ दिवस पर एक सहेली से बात करते हुए एक अजीब से तथ्य पर डिस्कशन शुरू हो गया। दरअसल उसकी बेटी बड़ी मुश्किल से विवाह के लिए राजी हुई थी और विवाह के अब तीन-चार वर्ष बीत चुके हैं परंतु, वह मां बनने के लिए राजी ही नहीं हो रही है। कहती है, इतनी छुट्टी नहीं ले सकती; फिगर बिगड़ जाएगी; बड़ी जिम्मेदारी का काम है; देश की आबादी का तो सोचो…वगैरह-वगैरह। मेरी सहेली बड़ी रुआँसी होकर कह रही थी कि अपने हिसाब से तो अच्छे संस्कार दिए थे,पता नहीं ऐसी बातें कहाँ से उसके दिमाग में आती हैं..? माँ बनना तो कितने सौभाग्य की बात है और यह लड़की कैसी-कैसी बातें बोल रही है..? तीस-बत्तीस की हो चुकी है…अब अभी मां नहीं बनेगी तो कब बनेगी..? शरीर भी तो स्त्रियों का जवाब देने लगेगा..। उसकी बातें सुनकर और उसे रुआँसी जानकर मैंने उसे समझाया–"चिंता मत करो, धीरे-धीरे खुद ही सब समझ जाएगी और अभी तो कितनी आधुनिक तकनीकें आ गई हैं… सब ठीक हो जाएगा।"

कहने को तो मैंने उसे समझाने के लिए कह दिया परंतु, फोन रखने के बाद ये बातें मेरे दिमाग में भी चलने लग गयीं।

आजकल के बच्चों को पता नहीं क्या होता जा रहा है? पहले तो विवाह के लिए ही राजी नहीं होते और विवाह कर भी लेते हैं, तो अधिकांश बच्चे माता-पिता बनने से कतराते हैं। पता नहीं, जिम्मेदारी से भागते हैं या अपने कार्यों में मशगूल हो कर इतने मशीनी हो गए हैं कि उनके पास इन सब भावनाओं के लिए वक्त ही नहीं है। लड़कियों में एक सोच यह भी पनप गई है कि हम क्या सिर्फ बच्चे पैदा करने की मशीन हैं? छोटी सी जिंदगी है…. हमारा जैसा भी चाहेगा, वैसे हम रहेंगे… यह पुरानी दकियानूसी मानसिकता नहीं चाहिए हमें..। बात कभी सही भी लगती है और कभी चिंतित भी करती है। लिव इन रिलेशनशिप और खुला बदलता माहौल शारीरिक जरूरतें पूरी कर देता है और बच्चा गोद लेकर या सरोगेसी या टेस्टट्यूब की तकनीक मां-बाप बनने का सपना पूरा कर देते हैं।जब सारी इच्छाएं तकनीक और पैसों से पूरी हो जा रही हैं तो जल्दबाजी की जहमत कौन उठाए भला? वैसे भी यह कलयुग है,यानी 'मशीन का युग', जिसमें रिश्तों की, व्यवहार की–हर तरह की परिभाषा बदल रही है। ऐसे में, क्या मां होना भी बदल गया है? क्या होता है मां होना आज के परिपेक्ष्य में?



मां शब्द बोलते ही जो भाव उत्पन्न होते हैं, वह पूर्णरूपेण ईश्वरीय हैं। इसीलिए तो कहते हैं कि मां को बनाकर ईश्वर बेरोजगार हो गए हैं क्योंकि जीवन देने से लेकर जीवन जीने के हर पहलू की जरूरतों को पूरा करने की क्षमता है एक माँ में। लेकिन, बदलते परिवेश में मां का स्वरूप भी बदलता हुआ दिख रहा है। समय के अनुसार माँयें भी बदल रही हैं।पहले मां अधिकांशतः गृहिणी हुआ करती थी। पति, बच्चे, घर की चारदीवारी ही उनकी दुनिया हुआ करती थी।सुबह से शाम और शाम से रात और फिर रात से सुबह तक– चौबीसों घंटे माँ अपनी गृहस्थी में व्यस्त होकर स्वयं को कृतार्थ समझती थी। परंतु, समय के साथ माँ का स्वरूप भी बदला है। आज की माँ सिर्फ गृहस्थी ही नहीं देखती, घर से बाहर जाकर जीविका उपार्जन भी करती हैं। वे अब घूँघट से निकलकर बच्चों और अपनी गृहस्थी के लिए प्रमुख अभिभावक की भूमिका में भी दिखाई देती हैं। ऐसे में, घर के अंदर और घर के बाहर– दोनों एक साथ लेकर चलती हुई वे 'सुपरवुमन' की कैटेगरी में शामिल हो गई हैं। इस क्रम में उनके परिधान भी बदल गए हैं। स्वयं को हर परिस्थिति के अनुकूल बनाने हेतु भी आरामदायक जींस टॉप या सलवार कुर्ता जैसे परिधानों में ज्यादा रहना पसंद करती हैं। वो मां का आंचल, उसमें बंधी चाबियां, एटीएम को मात करते आंचल से बंधे मुड़े-तुड़े रुपए और मां के आंचल को तौलिया बनाकर हाथ-मुँह पोंछना अब काफी हद तक पुरानी बातें होने लगी हैं। परंतु, समय कितना भी बदले, परिवेश कैसा भी हो मातृत्व की भावना शाश्वत है और उम्र से परे है। मातृत्व एक ऐसा भाव है, जो एक छोटी बच्ची से लेकर बुजुर्ग महिला तक में विद्यमान है। वैसे तो मातृत्व एक महत्वपूर्ण मानव बंधन है और बच्चों की देखरेख, उनके प्रति स्नेह और प्रेम का नाम है परंतु, यह सबसे सुखद एवं अलौकिक वह अनुभव है, जो किसी भी उम्र में पनप जाता है। यह छोटा सा शब्द अपनेआप में ही इतना बड़ा है कि इसकी गंभीरता को समझने के लिए इसे अनुभव करना पड़ता है। जरूरी नहीं है कि जो स्त्री संतान को जन्म दे, वही केवल मां बन सकती है। जो प्रेम करे, ख्याल रखे, अपने साथ के व्यक्ति पर ममत्व लुटाए, उसकी जरूरतों में साथ रहकर उसे सहलाए, हौसला दे,वह भी माँ- स्वरूपा कहलाएगी। कई बार घर में सबसे छोटी बेटी घर के अन्य बड़ों पर इतनी ममता लुटाती है कि मां जैसी लगने लगती है। हमने कई बार देखा भी है कि मजदूर मां जब दिहाड़ी के कार्य के लिए बाहर जाती है तब घर की बेटी,चाहे वह उम्र में बड़ी हो या छोटी हो,अपने भाई-बहनों को संभालती है, खाना बनाकर खिलाती है, छोटे बच्चों को थपकी देकर, लोरी गाकर सुलाती है, जो शायद उसके अंदर के मां वाले भाव से ही उभर कर आते हैं या उसके अंदर के मातृत्व की ममता से प्रेरित होकर कार्यान्वित होते हैं। इसीलिए, मां होने का भाव उम्र से परे है।बस माँ बनने के लिए शिशु को जन्म देना ही उम्र की सीमा के अंदर कुदरती तौर पर बँधा है। जन्म देना या जिम्मेदारी उठाना ही केवल माँ होना नहीं है, इंसानों के कोमल भावों की वृद्धि, एक जादुई ममता भरा पालन पोषण और छोटी से छोटी बातों की देखभाल भी स्त्री को को मां बना देते हैं। अपना सर्वस्व न्योछावर कर अपनी संतानों में अपना सुख देखना एक अलौकिक ईश्वरीय वरदान है,जो किसी भी स्त्री के लिए तपस्या से कम नहीं। आज के मशीनी समाज में, हालांकि इन भावनाओं में परिवर्तन नजर आने लगे हैं, फिर भी,काफी हद तक मां होना स्त्री को समाज में एक देवी का दर्जा देता है।

मातृत्व के भाव में परिवर्तन होने के कई कारण हैं, जिनमें से एक प्रमुख कारण है, समाज में होता नैतिक पतन। समाज में एकल परिवारों की संख्या बढ़ती जा रही है और स्त्रियां अपने करियर को लेकर ज्यादा महत्वाकांक्षी होती जा रही हैं। महत्वाकांक्षी होना बुरा नहीं है परंतु,एकल परिवार होने की वजह से छोटे-छोटे बच्चों की देखरेख अब आया या नैनी पर छोड़ दिया जाता है, जिसकी वजह से सही शिक्षा और सही संस्कार पाने से बच्चे वंचित रह जाते हैं और जब उनकी बारी आती है माता पिता बनने की तो वे या तो वही तरीका अपनाते हैं या फिर किताबें पढ़-पढ़ कर बच्चों को बड़ा करने की तकनीक सीखते हैं।इन सबमें मातृत्व कहीं पीछे छूट जाता है और बच्चे बड़े होकर जिम जाकर शरीर तो मजबूत बना लेते हैं पर मन और हौसला कमजोर रह जाता है। तभी तो बदलते माहौल में खुद को संभाल नहीं पाते और स्ट्रेस लेकर बीमार होते रहते हैं।मां का दूध पीने वाले और ममता की छांव में पलने वाले बच्चे अंदरूनी तौर पर अधिक मजबूत और हौसलों से भरे होते हैं।कई बार आजकल की मायें बच्चों को अपने करियर की बाधा के रूप में देखने लग जाती हैं, जिससे बच्चे उन्हें कैरियर के लिए खतरा लगने लग जाते हैं। मातृत्व पर स्त्रीत्व भारी पड़ने लग जाता है। आज की अधिकांश स्त्री किसी तरह के बंधन में पड़ना नहीं चाहती, आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के चक्कर में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती हैं।ऐसे में, उनके अंदर की मां कहीं पीछे छूट जाती है। हालांकि, सिक्के के दो पहलुओं की तरह इसका दूसरा पहलू भी है। बहुत सी कामकाजी माँयें अपने बच्चों के साथ क्वालिटी टाईम व्यतीत करतीं हैं,आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं और जरूरत के समय पर पिता की भूमिका में भी सफल होकर बच्चों का हौसला बढ़ाती हैं। अपना कैरियर और मातृत्व दोनों को साथ लेकर चलती हैं। परंतु, सबके बीच संतुलन बनाए रखने के चक्कर में कभी परिवार, कभी समाज तो कभी स्वयं को कुचल कर आगे बढ़ना पड़ता है। एक बात और भी है। मातृत्व केवल मां की ही जिम्मेदारी नहीं है। पिता भी मां बनकर अपने बच्चों की देखभाल और पालन पोषण कर सकते हैं और कई पिता कर भी रहे हैं। मां होना एक भावनात्मक नाजुक बंधन है,जिसे स्त्री या पुरुष कोई भी कर सकता है।यह अलग बात है कि जितनी कुशलता और कोमलता से स्त्री कर सकती है, उतनी शायद कुदरती तौर पर पुरुष नहीं कर सकते। माँ होना एक तपस्या है, कुदरती जिम्मेदारी है, ईश्वरीय वरदान है, जो सृष्टि को सुचारू रूप से चलाए जाने के लिए ईश्वर प्रदत्त है। उसका आदर किया जाना चाहिए और अपनी हर महत्वाकांक्षा, अपने हर स्वार्थ और हर परिस्थिति से ऊपर उठकर ईश्वर की इस नेमत का पालन किया जाना चाहिए। मां के इस भाव के पालन के लिए संतान को जन्म देने की जरूरत नहीं है वरन, जरूरी है अपनी ममता, करुणा और निःस्वार्थ प्रेम को समस्त संसार में बांटना।जब हर शिशु,हर इंसान के प्रति माँ जैसी ममता,करुणा का भाव पनपेगा तब यह समस्त वसुधा अपना ही परिवार बनती नजर आएगी। यदि मातृत्व का ऐसा भाव उत्पन्न होता रहे और हमेशा जीवंत बना रहे तो सोचिए, जीवन कितना सुंदर और सुखमय में हो जाएगा।हर छोटी-बड़ी घड़ी माँ के दुलार से लबरेज होगी और समस्त सृष्टि ईश्वरीय हो जायेगी।नमन माँ,नमन मातृत्व।

                     ©अर्चना अनुप्रिया।



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