top of page
Writer's pictureArchana Anupriya

कबीरदास:व्यक्तित्व और कृतित्व



हिंदी साहित्य के भक्तिकालीन युग के रहस्यवादी कवि, कबीरदास15वीं शताब्दी के एक संत के रूप में परमेश्वर की भक्ति लिए एक महान क्रांतिकारी प्रवर्तक के रूप में उभरे। इनके दोहों ने भक्ति आंदोलन को बड़े गहरे तक प्रभावित किया। किसी धर्म की बजाय सर्वोच्च ईश्वर को मानने वाले कबीरदास जी ने समाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की पुरजोर निंदा की और समाज की बुराइयों पर कड़े प्रहार किये--

"कबीर माया पापणी,फंद लै बैठी हठी

सब जग तौं फंधै पड्या,गया कबीर काटी।।

अर्थात

यह पापिन माया फंदा लेकर बाजार में आ बैठी है। उसने बहुत लोगों पर फंदा डाल दिया है,पर कबीर उसे काटकर साफ बाहर निकल आए हैं। हरि भक्तों पर फंदा डालने वाला स्वयं ही फँस जाता है।


संत कबीर का प्राकट्य सन् 1398 में जयेष्ठ

पूर्णिमा को ब्रह्म मुहूर्त में कमल के पुष्प पर हुआ माना जाता है।कहते हैं कि कबीर जी बालक के रूप में नीरू और नीमा नामक दंपत्ति को काशी के लहरतारा तालाब में एक कमल की पुष्प के ऊपर मिले थे--

अनंत कोट ब्रह्मांड में, बंदी छोड़ कहाए।

सो तो एक कबीर है,जो जननी जन्मा न माए।।


एक जनश्रुति के आधार पर इनका जन्म एक विधवा ब्राह्मणी से हुआ था, जिसने लोकलाज के भय से इन्हें काशी के लहरतारा तालाब के पास छोड़ दिया था और वहीं से नीरू और नीमा नामक जुलाहे दंपत्ति ने इनको प्राप्त किया। इनका विवाह "लोई" नामक युवती से हुआ जिनसे इन्हें कमाल तथा कमाली नाम के पुत्र और पुत्री हुई। कबीर दास जी यों तो अनपढ़ थे परंतु, उनका व्यक्तित्व अत्यंत ही मस्तमौला, अक्खड़,निर्भीक विद्रोही किस्म का था। वह एक क्रांतिकारी समाज सुधारक थे।इसीलिए, उनकी रचनाओं में अनुभूति पक्ष अधिक प्रबल दिखाई देता है और अभिव्यक्ति पक्ष शिथिल है। उन्होंने अपना गुरु,"श्री रामानंद जी" को बनाया और उनसे ही उन्होंने 'राम मंत्र' लिया। उनके स्वाभिमानी और अक्खड़ स्वभाव के कारण तत्कालिक लोदी शासक, सिकंदर लोदी ने कबीरदास जी पर कई अत्याचार भी किए परंतु, उन अत्याचारों की परवाह न करते हुए कबीरदास जी हमेशा हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल देते रहे।सन् 1518 ई.में इस महान कवि संत का बनारस के समीप "मगहर" नामक स्थान पर देहावसान हो गया, जहाँ "कबीरचौरा" नामक समाधि बनाई गई।

यूँ तो राम मंत्र उन्होंने श्री रामानंद जी से लिया था परंतु आगे चलकर कबीर के राम रामानंद जी के राम से भिन्न हो गये और उनकी प्रकृति निर्गुण उपासक की हो गई।मूर्ति पूजा को लक्ष्य करके उन्होंने लिखा भी था--

"पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार,

थाते तो चाकि भली,जासे पीसी खाए संसार"


मस्त स्वभाव,सधुक्कड़ी भाषा और क्रांतिकारी विचारों ने कबीरदास के व्यक्तित्व को असाधारण जीवन-रस से भर दिया। इसीलिए, उनकी उक्तियाँ जनसाधारण के मानस तत्व को उद्वेलित करती हैं। उनके इस व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक संभाल नहीं पाते हैं और उनकी कृतियों पर रीझकर कबीर दास को कवि कहने में संतोष पाते हैं। कबीरदास हिंदू और मुसलमान दोनों ही धर्मों में व्याप्त आडंबर और अंधविश्वासों से पीड़ित थे और बड़े खुलकर उन्होंने इन सामाजिक कुरीतियों पर कुठाराघात किया। उनके अनुयायियों में हिंदू और मुस्लिम दोनों ही थे और वे कबीरपंथी कहलाये।


कृतित्व..

कबीरदास जी स्वयं पढ़े-लिखे नहीं थे, अतः उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे परंतु, उन्होंने जो कुछ मुख से बोला,वे सभी उनके शिष्यों द्वारा लिखे गए। कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न बताई गई है। किसी के अनुसार 74 ग्रंथों की सूची है तो किसी के अनुसार 71 ग्रंथ पाए गए हैं। उनकी वाणी का संग्रह "बीजक" नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं-- रमैणी,सबद और साखी। कबीरदास मूलतः संत कवि और समाज सुधारक थे। इसीलिए उनकी रचनाओं का प्रत्येक शब्द पाखंडवाद और धर्म के नाम पर ढोंग और स्वार्थ पूर्ति के दुकानदारों को ललकारता हुआ और असत्य, अन्याय और दिखावे की पोल खोलता हुआ दिखाई देता है। उनके शब्द चोट भी करते थे और प्रश्न भी खड़े करते थे। उनकी कृतियों की भाषा बोल चाल की भाषा है और सधुक्कड़ी भाषा के रूप में जानी जाती है। कबीरदास जिस बात को जिस तरह से कहना चाहते थे,उसी तरह कहा।भाषा पर उनका जबरदस्त अधिकार यह बताता है कि भाषा भी मानो कबीर दास के समक्ष लाचार सी थी। कबीर दास ने जिन तत्वों को अपनी रचना से ध्वनित करना चाहा, उसके लिए उनकी भाषा से साफ और जोरदार शब्दों की ध्वनि निकली।वह निर्गुण निराकार ब्रह्म में विश्वास रखते थे और उनका मानना था कि ईश्वर सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है। पूजा पाठ के तरीकों पर आडंबर करने वालों को उन्होंने अपने शब्दों से खूब लताड़ा। उन्होंने सदाचार पर बल दिया और कहा कि भक्ति के क्षेत्र में आडंबरों की नहीं वरन् सद्भावना की आवश्यकता है। उनका विश्वास निर्गुण, निराकार ब्रह्म में था। उनके अनुसार, ईश्वर अनंत, अगोचर, अगम है और कण-कण में व्याप्त होकर मनुष्य के हृदय में निवास करते हैं। इसीलिए, इधर-उधर ईश्वर को ढूंढने का प्रयास व्यर्थ है--

ज्यों तिल माहीं तेल,ज्यों चकमक में आगि

तेरा साईं तुज्झ में,जागि सकै तो जागि।।


वह बहुदेववाद और अवतारवाद का भी खंडन करते हैं। बाहरी आडंबरों के विरोधी और कर्मकांड के एकदम विपरीत उनकी सोच थी। यदि हिंदुओं की मूर्ति-पूजा, तीर्थ, व्रत आदि का उन्होंने विरोध किया तो मुसलमानों के हज, रोजा, नमाज आदि का भी उतना ही विरोध किया--

पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार

ताते तो चाकी भली जो पीस खाए संसार

××××××××××××××××××××××××××

कंकर पाथर जोरि कै मस्जिद लियो बनाय

ता चढ़ी मूला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय


कबीर जी के काव्य में समाज सुधार की भावना प्रबल रूप से दिखाई देती है। उन्होंने वर्ण-व्यवस्था,छुआछूत, ऊंच-नीच जैसी सामाजिक कुरीतियों का अपने काव्य द्वारा पुरजोर विरोध किया। उन्होंने अपनी वाणी में गुरु को अत्यधिक महत्त्व दिया है। उनके अनुसार,गुरु ही शिष्यों को परमात्मा से मिलाने की राह दिखाता है, अतः उनका स्थान ईश्वर से भी ऊपर है--

गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाँय,

बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताये ।।


उनकी रचनाओं में रहस्यवाद के भी दर्शन होते हैं। उनका रहस्यवाद ब्रह्म जिज्ञासा का फल है। उन्होंने विरहिणी आत्मा का रूपक बनाकर आत्मा और परमात्मा के प्रेम का वर्णन किया है।कहीं- कहीं उनके रहस्यवाद पर शंकराचार्य के अद्वैतवाद का भी प्रभाव दिखता है--

जल में कुंभ कुंभ में जले है

बाहरी भीतरी पानी

फूट्यो कुंभ जल जले ही समाना

या तत कह्यौ ग्यानी

उनके काव्य में कला पक्ष भी उत्कृष्ट है।जनभाषा होने के साथ उनकी भाषा में राजस्थानी, पंजाबी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली, पूर्वी हिंदी, फारसी आदि भाषाओं का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इस विषय में कहते हैं --"भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसे उसी रूप कहलवा दिया।" कबीर दास ने अपनी रचनाओं में मुख्यतः दोहा, चौपाई, छंदों का प्रयोग किया है। उनके काव्य में अनेक राग-रागिनियाँ मिलती हैं। अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा, यमक, विरोधाभास आदि के स्वभाविक प्रयोग से उनकी भाषा अत्यंत ही आकर्षक बन पड़ी है।


संत संत कबीर भक्ति कालीन इकलौते ऐसे व्यक्ति हैं, जो आजन्म समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे और इसके लिए उन्होंने माध्यम अपनी भाषा और अपने काव्य प्रतिभा को बनाया। लोक कल्याण और कर्म प्रधान जीवन के समर्थक,संत कबीरदास जी वास्तव में हिंदी साहित्य और समाज के लिए एक अनमोल निधि है जिनकी कही हुई बातें और जिनके काव्य युगों- युगों तक समाज को दिशा देते रहेंगे।

© अर्चना अनुप्रिया

13 views0 comments

Recent Posts

See All

Comments


bottom of page