आज सुबह-सुबह मोबाईल की टिकटिक से नींद खुली। व्हाट्सएप पर कोई मैसेज था। खोलकर देखा तो अमेरिका से मेरी फ्रेंड ने अबीर, गुलाल और मिठाइयाँ भेजी थीं। याद आया कि आज तो होली है।थोड़ी देर में मेरी तस्वीर आई जो रंगों से पुती हुई थी..फिर क्या था.. मैं लेटी-लेटी ही रंगों से नहा गई। थोड़ी ही देर में उसने मुँह में जलेबी, दही-बड़े और गुझिये ठूँस दिये।मुँह में गजबके स्वाद भर गए ।फिर नीचे एक मैसेज कौंधा-"बुरा न मानो होली है"। मैं पूरी तरह से रंगीन हो गई। फिर, दूसरे दोस्तों का ध्यान आया। भला मैं अकेली क्यों रंगों से भरी रहूँ..? हमने फ्रेंड्स फॉरएवर का ग्रुप बना रखा है,जहाँ हम सभी सहेलियाँ हर दिन अपना जीवन साथ बिताती हैं। मैंने ग्रुप में रंगों की पिचकारी चलाकर सबको रंगों से भर दिया। फिर क्या था... सब की सब एक्टिव हो गयीं। तरह-तरह के रंगों की बौछार शुरू हो गयीं।किसी ने डीपी रंग दी तो किसी ने रंगों से भरी पिचकारी दे मारी। हँसने-हँसाने की इमोजी का आदान-प्रदान हुआ, फिर मिठाईयाँ, जलेबी, दही बड़े, गुझिये, पूरी, पूए और न जाने क्या-क्या बँटे..। आधे पौने घंटे तक रंग गुलाल चलते रहे,हमारी आत्मायें भीगती रहीं और हम एक दूसरे का मुँह मीठा कराते रहे। बिना कुछ किये ही समां ऐसा रंगीन हुआ कि हफ्ते भर हम सभी उन प्रेम भरे रंगों से सराबोर रहे।
सचमुच,अजीब दौर है यह जीवन का.. यह समय,यह काल नए-नए अनुभव और नई-नई परिस्थितियाँ उत्पन्न कर रहा है और हमें इस बात के लिए मजबूर कर रहा है कि हम उसके बताए रास्ते पर ही अपने जीवन की गाड़ी लेकर चलें। हम इंसान भी परिस्थितियों के हिसाब से स्वयं को ढालने में सिद्धहस्त हैं... और क्यों न हों.. जीवन किसे प्यारा नहीं..? कहते हैं न… तूफानों से वही पेड़ बचते हैं जो झुक जाते हैं और तन कर रहने वाले वृक्षों का टूटना तो लाजिमी है। तो भाई, हर परिस्थिति के हिसाब से इंसानों ने खुद को ढालना सीख लिया है। तभी तो अब तक काल की इतनी लंबी यात्रा करते चले आ रहे हैं। सामान्य परिस्थिति या रोजमर्रा की जिंदगी ही नहीं त्योहारों को भी परिस्थिति के हिसाब से बदलकर मनाना हमने सीख लिया है। कुदरत चाहे कितने ही बंधन क्यों न डाले, हम स्वयं को उसके हिसाब से तोड़ मरोड़ कर हर त्यौहार को खुशियों में बदल देते हैं। अब जैसे यह करोना काल की परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं तो हमने 2020-21 के हर त्यौहार को समय के हिसाब से अपने अंदाज में मना ही लिया। होली का त्योहार भी अब बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं होता क्योंकि हम डिजिटल होली मनाने लग गए हैं। जी हाँ, डिजिटल होली... जिसमें जल का अपव्यय नहीं होता, केमिकल रंगों से चेहरा या तबीयत खराब होने की चिंता नहीं रहती,मिठाई, गुझिया या तरह-तरह के नमकीन,दही बड़े वगैरह आँखों से खाते हैं। इसीलिए, न तो नकली मिलावटी मिठाई से तबीयत बिगड़ने का डर होता है, न ही हमें बीमार होने की चिंता रहती है। कुल मिलाकर कम खर्चे में ही होली के रंगों से रंगीन हो जाते हैं हम सभी...सोशल डिस्टेंसिंग,जल का बचाव और और स्वास्थ्य सुरक्षा- सभी कुछ तो है इस डिजिटल होली में।सबसे बड़ी बात तो यह है कि पैसे बचते हैं, लड़ाई झगड़े का मौका नहीं मिलता और मम्मियों का सारा दिन रसोई में नहीं बीतता है। लोग मिलें न मिलें सुबह से शाम तक एक दूसरे को होली की बधाइयाँ जरूर मिलती रहती हैं और हम सभी बगैर भीगे रंगों में सराबोर होते रहते हैं। सूचना क्रांति में जितनी डिजिटल पिचकारियाँ चलती हैं , यदि उसकी 10% भी असलियत में चलें तो थाने में न जाने कितनी एफ. आई. आर. दर्ज करवा दें आज के मनचले युवा।
गांव, कस्बा, शहर हो या महानगर- डिजिटल होली ने हर जगह पैर पसार लिया है।अब एक दो दिनों की होली नहीं होती है जनाब,सप्ताह भर होली की पिचकारियाँ चलती रहती हैं, और तरह -तरह की मिठाइयों का आदान-प्रदान होता रहता है। हर घर में छोटे से डिजिटल दरवाजे से घर आकर कान्हा और गोपियों की होली जबरदस्त रंग बिखेरती है।
वीडियो और टेक्स्ट मैसेज द्वारा फगुआ की धुन बिखेरकर और नाच-गाकर हम न केवल खुश होते हैं बल्कि ग्रुप में भेज-भेज कर दूर-दराज के दोस्तों को भी होली का मजा देते हैं। अड़ोस-पड़ोस तो छोड़िए, खुद घर के अंदर कोई एक दूसरे पर रंग नहीं डालता है आजकल। सब अपना-अपना मोबाइल लेकर अपने-अपने कमरों में बंद होकर अलग-अलग तरह के ऐप से एक दूसरे पर रंग डालते रहते हैं। बहुत हुआ तो बड़ों के पैरों पर गुलाल रखकर आशीर्वाद ले लिया या छोटों को टीका लगाकर या गालों पर जरा सा गुलाल लगा कर आशीर्वाद दे दिया। दोस्तों,रिश्तेदारों को भी वहीं से होली विश कर दिया जाता है।मोबाईल ही आजकल पिचकारी बने हुए हैं।अब रंग चेहरों पर नहीं एक दूसरे की डीपी पर और स्टेटस पर डाले जा रहे हैं। होली की शुभकामनाएँ गले मिलकर नहीं दी जा रहीं, फेसबुक,ट्विटर और व्हाट्स ऐप के जरिए दी जा रही हैं।इसी क्रम में अगर व्यक्तिगत तौर पर शुभकामनाएँ भेजी जाएँ, तो रिश्ते की नजदीकी सिद्ध होती है। मजे की बात है कि सामने वाला भी खुद को रंगों से गिला और मिठाइयों से तृप्त महसूस करता है... बुरा कोई नहीं मानता क्योंकि आज के दौर की यही होली है। घर जाकर रंगों से गिला करना धीरे-धीरे असभ्यता की श्रेणी में आता जा रहा है। वह समय लगभग बीता सा लगने लगा है जब फिजा अबीर गुलाल और रंगों से रंगीन और सराबोर रहती थी और लोगों के चेहरे लाल, नीले,गुलाबी नजर आते थे। अब किसी के घर जाकर उस पर चुपके से रंग डालो तो लोग जबरदस्त लाल- पीले हो जाते हैं।बच्चों की टोलियाँ अगर कभी रंगों से पुती गली-मोहल्लों से निकलें तो माता-पिता काँपने लगते हैं कि कहीं इस समय की बर्बादी से उनके बोर्ड एग्जाम में प्रतिशत न कम आ जाएँ। "बुरा न मानो होली है" का चलन पहले ऐसा था कि कोई बुरा मानता ही नहीं था। अब ऐसी बातें शिष्टाचार और एटिकेट के विरुद्ध मानी जाती हैं। यहाँ तक कि पत्नियाँ भी रंग-बिरंगे इमोजी से खुश हो जाती हैं।यदि गलती से रंग लगा दिया जाए तो अगले दिन ब्यूटी पार्लर में भीड़ लग जाती है। पति या जीजा जी यदि जबरदस्ती रंग लगा दें तो सालियों और पत्नियों को भड़कते देर नहीं लगती। आखिर सेल्फी के लिए लुक्स का फ्रेश रहना जरूरी भी तो है।भांग घोटना, खाना और "रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे" या "आज न छोड़ेंगे सब हमजोली.." जैसे गानों पर झूमना,ठुमकना, बेहोश या मदहोश होना अब मोबाइल के विभिन्न ऐप से ही हो जाता है। लोग नाचना- गाना भी ऐप से ही कर लेते हैं,कहना-सुनना सब मोबाइलों से ही हो जाता है और प्रेम तथा गिले-शिकवे के लिए तरह-तरह के मुँह बनाते इमोजियाँ तो हैं ही। मिठाइयों की मिठास सौ-पचास के ग्रुप में या व्यक्तिगत तौर पर मिठाइयों की तस्वीरों या स्टीकर्स भेजकर तस्वीरों से ही मिल जाती है।मिठाइयों का आदान-प्रदान भी ऐप पर ही हो जाता है। अजीब दौर है यह.. शायद 20-25 सालों के बाद लोगों को होली मनाने की परंपरा भी राजाओं और राज महलों की तरह कहानियाँ जैसी लगने लग जायें।समय बदल गया है और बदल रहे हैं हम। अब डिजिटल होली हमें ज्यादा अच्छी लगने लगी है। कोई रंगों से भरी बाल्टी लेकर आने की बात कहता है तो हम पहले से ही गीले होने के डर से कोई न कोई बहाना बनाने लग जाते हैं। कोई गुझिया या मिठाई का डिब्बा भेज दे या लेकर आए तो उसे दूसरे के घर भेज देते हैं या कामवालियों को दे देते हैं क्योंकि हर डब्बे में डायबिटीज भरा होने लगा है। भला हम क्यों बीमार पड़ें..??मोबाईल पर ही मिठाइयाँ वगैरह भेज कर और खाकर तृप्त हो लेते हैं। देखिए, आत्मा अमर है और शरीर नश्वर। अगर ऐप से ही आत्मा तृप्त हो जाती है तो शरीर को खिलाकर बीमार करते रहने की जरूरत क्या है?? सभी शाश्वत चीजों के विषय में सोचते हैं तो हम भी क्यों न यही सोचें..?? अरे भाई,जैसी दुनिया वैसे हम..।
©अर्चना अनुप्रिया
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