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Writer's pictureArchana Anupriya

"दरकते पहाड़"

गुस्से में थी पर्वत श्रृंखला

फट पड़ी थी ज्वालामुखी

टूट-टूट गिर रहे थे पत्थर

पर्वत थे बेकल और दुःखी..


झरने बन गिर रहे थे आँसू

छलनी था पर्वत का सीना

इन्सां ने बारूद बिछाकर

मुश्किल किया था गिरि का जीना..


कितना कुछ तो दिया गिरि ने

सौंदर्य, घर, आश्रय जीवों को

पर मानव ने मान न रखा

हिला ही दिया पर्वत-नींवों को..


जाने कितने प्राकृतिक औषधि

उजड़ रहे थे, बिखर रहे थे

स्वार्थ में अंधे धन के लोभी

बेच हरियाली, निखर रहे थे..


"कितना है निर्मोही मनुष्य"-

बिलख रहे थे दरकते पहाड़

जिसने जिंदगी और सुरक्षा दी

अज्ञानी रहा है उसीको उजाड़..


कितने रहस्य और कितनी गुफाएँ

कितने रत्न और कितनी शान

न जाने क्या-क्या दिए पर्वत ने

संत, संस्कार और इतिहास और ज्ञान..


आज आहत हो पर्वतों ने

सबक सिखाने की है ठानी

झिंझोड़ गिराते मानव के घर

नदी, झरने..कर रहे मनमानी..


सोचो कैसी पीड़ा होती है

उजड़ता है जब घर-संसार

टूट रहा है दिल पर्वतों का

वे अटल गए इन्सां से हार..


कल तक हवाओं से लड़ते थे

मेघों संग अठखेलियाँ करते

सूरज चाँद से मिलन था उनका

धवल हिम की बेलियाँ चढ़ते..


अब भी सँभलें हम सब मानव

बचा लें प्रकृति, नदी और झाड़

"हम गोवर्धन हैं, देंगे सुरक्षा"

-दे रहे आश्वासन दरकते पहाड़..

अर्चना अनुप्रिया


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