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Writer's pictureArchana Anupriya

"पारंपरिक खेल और क्रिकेट"

“पारंपरिक खेल और क्रिकेट”


अंतिम गेंद पर जैसे ही बल्ला घूमा, फिल्डिंग करती भारतीय टीम के खिलाड़ी ने कैच लपक लिया और बैट्समैन आउट घोषित हुआ।इसके साथ ही भारत क्रिकेट 20-20 वर्ल्ड कप प्रतियोगिता का विश्व-विजेता बन गया।खिलाड़ी भावुक होकर नृत्य करने लगे,कप्तान ने ग्रांउड की मिट्टी चूमी और सभी खुशी से एक दूसरे से गले मिलने लगे।दर्शक-दीर्घा में बैठे सभी भारतीय मानो दीवाने से होकर उछलने-कूदने लगे।समूचे भारत में एक अजीब सी खुशी की लहर दौड़ गयी। घरों में, गलियों में, क्लबों में,बाजारों में.. जिसने जहां से यह नजारा देखा, वहीं कूद-कूद कर खुशियों का इजहार करने लगा।कई लोगों ने लड्डू बाँटे,एक-दूसरे को गले लगाया और धर्म, जाति,ओहदा सब भूल कर एक साथ झूम उठे। राष्ट्रभावना ऐसी उमड़ी कि क्या आम, क्या खास सभी भारतीय एक अजीब सी खुशी के रंग से सराबोर हो गये। क्रिकेट की टीम जब वर्ल्ड कप की ट्रॉफी लेकर भारत की धरती पर मुंबई में उतरी तो एक जादुई सा नजारा देखने को मिला। सारी सड़कें लोगों से ऐसी पट गई मानो इंसानों की सुनामी सी आ गई हो। मुंबई की सड़कों पर इंसान ही इंसान नजर आने लग गए। सड़कें तो दिख ही नहीं रही थीं। क्रिकेट की टीम ट्राफी को हाथों में लिए ट्रक के ऊपर चढ़कर अपने मुरीदों से मिलती हुई दिखाई दी। छोटे बच्चों से लेकर भारत के प्रधानमंत्री तक सभी प्रफुल्लित थे, खुश थे, उत्साहित थे। यहां तक कि भारत को अपना दुश्मन मानने वाले पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी लोग भारतीय खिलाड़ियों की प्रशंसा करते और उनकी जीत पर खुश होते दिखाई दिए। 


क्रिकेट की यह लोकप्रियता और लोगों में खेल के प्रति इस तरह की लगन को देखकर एक तरफ तो अत्यंत ही खुशी का अनुभव होता है लेकिन, दूसरी तरफ एक प्रश्न भी खड़ा होता है कि क्रिकेट के खेल की बढ़ती लोकप्रियता ने अन्य भारतीय पारंपरिक खेलों के प्रति के समर्पण भाव को अत्यंत छोटा कर दिया है। लोगों का ध्यान अन्य खेलों की तरफ उतना जाता ही नहीं है जितना क्रिकेट की ओर जाता है। एक समय था जब हॉकी, फुटबॉल,खो-खो जैसे अन्य खेल लोगों के सिर चढ़कर बोलते थे। परंतु, अब के समय में क्रिकेट ने इन सबको बहुत पीछे छोड़ दिया है। बचपन के अन्य बहुत से खेल जैसे, लुकाछुपी, गीली-डंडा, दौड़-रेस, रस्सीकूद की अहमियत धीरे-धीरे कम होते-होते लगभग विलुप्त सी होने लगी है। वर्तमान काल में क्रिकेट की दीवानगी बच्चों पर कुछ ऐसी छा गई है कि अन्य खेलों की तरफ उनका ध्यान ही नहीं जाता है। हर जगह,हर प्रांत, गली-मोहल्ले,गाँव,कस्बे, मैदान में बड़े,छोटे,बुजुर्ग सभी मामूली बैट-बॉल लेकर एक दूसरे संग टीम बनाकर क्रिकेट खेलते देखे जा सकते हैं। यहां तक कि जीविका उपार्जन के लिए भी युवा-वर्ग खेलों के रूप में क्रिकेट को ही चुनना अधिक पसंद करते हैं क्योंकि इस खेल का वित्तीय पक्ष भी अन्य खेलों की अपेक्षा अधिक मजबूत है।

इसके अतिरिक्त आज की इस मोबाइल-संस्कृति ने भी पारंपरिक खेल-जगत को बहुत नुकसान पहुँचाया है।सारी दुनिया की खबरें,वीडियो गेम्स,विदेशी मनोरंजन कार्यक्रम  और आरामतलबी खेलकूद जैसी चीजें हर समय मोबाइल पर उपलब्ध होती हैं,जिसे देखकर बचपन का समय बर्बाद होता है,शारीरिक व्यायाम की जगह आँखें खराब होती हैं और बड़े होकर काम करने की उम्र में जिम के चक्कर  लगाने पड़ते हैं।ऐसे में पारंपरिक खेलकूद का असली महत्व समझ में आता है।


खेल खेलना हमेशा से ही हम सभी के लिए बड़े होने का एक रोमांचक हिस्सा रहा है। हम बचपन के खेल और गैजेट मुक्त दिनों को खुशी के साथ याद करते हैं। खेल दोस्त बनाने और स्वस्थ रहने का एक शानदार तरीका है।विशेषरूप से पारंपरिक खेल खेलने से हमेशा बच्चों में टीमवर्क और सामाजिक संपर्क को बढ़ावा मिलता है। अधिकांश पुराने स्कूली खेलों में चपलता और हरकतों की आवश्यकता होती है जैसे कि हाथ हिलाना और कूदना। इससे व्यायाम बढ़ता है और आँख-हाथ का समन्वय बेहतर होता है ।


भारत की एक विशाल और अनूठी संस्कृति है, और हर राज्य की अपनी परंपराएं और खेल हैं। हमेशा  से भारत विभिन्न पारंपरिक खेलों की भूमि बना हुआ है। खो-खो,लंगड़ी,रस्सीकूद, लुकाछिपी,पहलवानी, भारतीय कुश्ती, जल्लीकट्टू और भी बहुत कुछ। मल्लखंब जिसे भारत का पोल डांस भी कहा जाता है, पारंपरिक खेलों में से एक है। यह भारत के बहुत कठिन खेलों में से एक है। यह खेल भारत के गांवों में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। भारत के गांवों में और भी कई प्रसिद्ध खेल हैं जो बहुत साहसिक भी हैं और खेल-खेल में ही बच्चों का शारीरिक और मानसिक व्यायाम भी करा देते हैं।इन सबमें ही कुश्ती सर्वश्रेष्ठ भारतीय खेल है।इसकी परंपरा अत्यंत ही प्राचीन है।यह काया को बनाए रखने के लिए सबसे अच्छा खेल है। पारंपरिक कुश्ती अखाड़े में होती है। अखाड़ा कुश्ती का अभ्यास करने की एक जगह है। उनके प्रशिक्षक द्वारा बनाए गए कई सख्त नियम हैं, जिनका उन्हें पालन करना होता है। पहलवानों को सख्त आहार लेना पड़ता है। एक और बात है जो हम सभी को ध्यान में रखनी होगी, यहां तक ​​कि छात्रों को भी इस पर अधिक ध्यान देना होगा और वो ये कि भारतीय कुश्ती स्कूल (अखाड़ा) बहुत कम हैं। दिन-प्रतिदिन उनकी संख्या कम होती जा रही है लेकिन कई लोग उन्हें जीवित रखने के लिए अपने स्तर की कोशिश कर रहे हैं। नई पीढ़ी और युवाओं ने भी अपनी भारतीय परंपरा को बचाने की पूरी कोशिश की है। भारत में अन्य प्रसिद्ध पारंपरिक खेल जिसका नाम मल्लखंब है, एक जिमनास्ट के प्रकार का खेल है। इसमें व्यक्ति एक खड़े लकड़ी के खंभे में करतब और मुद्राएं करता है। यह खेल संतुलित जीवन जीने में बहत मदद करता है। जो व्यक्ति नियमित रूप से यह खेल खेलता है, उसमें निश्चय ही अपने आप पर पूरा भरोसा पनपता होगा। उनमें नेतृत्व करने की अद्भुत शक्ति होती है। वे कठिन परिस्थितियों से निपटना जानते हैं। किसी भी तरह का पारंपरिक खेल खेलें, हमेशा  खिलाड़ी को आत्मविश्वास मिलेगा और आज के समय के छात्रों को निश्चित रूप से उन खेलों को सीखने की आवश्यकता होगी, जिनमें शारीरिक शक्ति की आवश्यकता होती है,क्योंकि इससे वे मानसिक और शारीरिक दोनों में ही सुचारू रूप से मजबूत बनते हैं।दुख की बात है कि आज के दौर में बच्चे लगातार टीवी और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स से चिपके रहते हैं।इस वजह से कम उम्र में ही बच्चे बीमारियों के शिकार होने लग जाते हैं,आँखों पर चश्मा चढ़ने लग जाता है,यादाश्त कमजोर होने लग जाती है क्योंकि बहुत सूचनायें उपलब्ध होने की वजह से उनका ध्यान भटकता रहता है।आजकल अधिकांश खेल बैठकर खेलनेवाले हैं,जिससे बच्चों का शारीरिक व्यायाम नहीं हो पाता,कभी पांव, कभी गर्दन  तो कभी पीठ दुखती रहती है और उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।फलस्वरूप, बच्चा अक्सर बीमार होता रहता है।सच कहा जाये तो आजकल 

प्रगतिशील और आधुनिक बनने के दौड़ में हम अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। पारंपरिक खेल,जिनसे आवश्यक शारीरिक और मानसिक कसरत हो जाती थी,ऐसे खेल का महत्व जैसे हम भूलते जा रहे हैं। आज के बच्चे मोबाइल, लैपटॉप और वीडियो गेम्स से ही खेलते हैं। परंतु पारंपरिक खेलों का महत्व बच्चों की बढ़ती ग्रोथ के साथ जानना आवश्यक है। खेल जितना स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है, उतना ही खेल का महत्व पढ़ाई के क्षेत्र में भी जानना जरूरी है।खेल के महत्व को समझने के लिए जरूरी है उन खेलों को जानना और खेलना।



सबसे पौराणिक खेलों में एक मनोरंजक खेल है,अंत्याक्षरी अर्थात अंतिम अक्षर का खेल।यह भारत में खेला जाने वाला एक बोलचाल  का पार्लर गेम कहा जा सकता है। इसमें प्रत्येक प्रतियोगी एक गीत (अक्सर शास्त्रीय हिंदुस्तानी या बॉलीवुड गाने ) का पहला छंद गाता है जो हिंदी वर्णमाला के उस व्यंजन से शुरू होता है जिस पर पिछले प्रतियोगी का गीत समाप्त हुआ था।इससे एक तो यादाश्त बढ़ती है,दूसरे, गाना गाने से मन और व्यक्तित्व संगीत के लय से जुड़ जाता है,जो व्यक्ति का प्रकृति से सामंजस्य बनाते हैं और भावनात्मक विकास करते हैं।

एक दूसरा खेल, पतंगबाजी था,जो आज एक दिन का शौकिया खेल होकर रह गया है।यह खेल बच्चे,बड़े सभी के लिए ध्यान केन्द्रीकरण के अभ्यास का अद्भुत  खेल माना जा सकता है।साथ ही स्वयं की पतंग को बचाते हुए दूसरे की पतंग को काटना जैसी प्रक्रिया से अद्भुत तकनीक को विकसित करना भी सीखा सकते हैं।इसी तरह कंचे खेलना, गिल्ली डंडा, कबड्डी आदि ऐसे खेल थे जो निशाना,ताकत, जरूरी समझदारी को बढ़ाने में मदद करते थे।

एक अन्य खेल,धोपखेल असम के मूल निवासी पुरुषों और महिलाओं दोनों द्वारा खेला जाने वाला खेल है।धोपखेल,जिसे धूप खेल  भी कहा जाता है, भारत के असम राज्य में खेला जाने वाला एक पारंपरिक गेंद का खेल है । यह खेल मैदान पर 11 लोगों की दो टीमों के बीच खेला जाता है, जो चार झंडों से घिरा होता है। खिलाड़ी बारी-बारी से प्रतिद्वंद्वी पर गेंद फेंकते हैं ताकि उन्हें खेल से बाहर कर सकें, जबकि गेंद को पकड़ने और अन्य खिलाड़ियों द्वारा टैग किए जाने से बचने की कोशिश करते हैं। यह गति, सहनशक्ति और कलाबाजी कौशल का परीक्षण है।


इन पारंपरिक खेलों ने  नियमों, सहयोग और जीतने या हारने के लचीलापन के बारे में समझने में हमेशा हमारी मदद की है। उन्होंने हमें कई जीवन कौशल हासिल करने में मदद की है। पारंपरिक खेल खेलने से हमेशा बच्चों को एक साथ लाया जाता है और टीमवर्क और सामाजिक संपर्क को बढ़ावा मिलता है।

पारंपरिक खेल वे अद्वितीय अवसर प्रदान करते हैं जो मुख्यधारा के खेल नहीं दे पाते हैं। वे अक्सर प्रतिस्पर्धा पर नहीं, बल्कि मौज-मस्ती और भागीदारी पर आधारित होते हैं, और खेल और शारीरिक गतिविधि से कहीं बड़ी चीज़ से जुड़ाव प्रदान करते हैं।

पारंपरिक खेल खेलने से हमेशा बच्चों को एक साथ लाया जाता है, जिससे टीमवर्क और सामाजिक संपर्क को बढ़ावा मिलता है। ज़्यादातर पुराने स्कूली खेलों में चपलता और हरकतों की ज़रूरत होती है, जैसे कि हाथ हिलाना और कूदना,जो पूरी तरह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है।

स्थूल और सूक्ष्म कौशल में सुधार, बेहतर नियंत्रण और संतुलन, बेहतर हाथ-आंख समन्वय, बढ़ी हुई स्थानिक जागरूकता और बेहतर सामाजिक कौशल इन पारंपरिक  खेलों की हमेशा से विशेषता रही है।

पारंपरिक खेल अनुभव और अनुशासन का अद्वितीय अवसर प्रदान करते हैं जो क्रिकेट जैसे मुख्यधारा के खेल नहीं दे पाते हैं।वे अक्सर प्रतिस्पर्धा पर नहीं, बल्कि मौज-मस्ती और भागीदारी पर आधारित होते हैं और शारीरिक गतिविधि से कहीं बड़ी चीज़ से जुड़ाव प्रदान करते हैं।ये खेल एक तरह से अनजाने में जीवन कौशल का निर्माण करते हैं।पारंपरिक खेल खेलने के क्रम में हमेशा बच्चों को एक साथ लाया जाता है, जिससे टीमवर्क और सामाजिक संपर्क को बढ़ावा मिलता है। ज़्यादातर पुराने स्कूली खेलों में चपलता और हरकतों की ज़रूरत होती है, जैसे कि हाथ हिलाना और कूदना आदि। ये बच्चों के शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के विकास में सहायक होते हैं।शरीर और दिमाग काे विकसित करने के लिए खेल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके साथ ये खेल मनोरंजन के साथ खेला जाता है तो तनाव को भी दूर करता है।पैसे लगाकर खेलने वाले या पैसों के लिए खेलने वाले आजकल के कई खेल उल्टा मानसिक तनाव को बढ़ा देते हैं क्योंकि ऐसे खेलों में पैसे दांव पर लगे होते हैं तो मानसिक दवाब बना रहता है। मनोरंजन के साथ खेलने वाले खेल हमेशा ही स्वास्थ्यवर्धक होते हैं।ये खेल कंसन्ट्रेशन को बनाए रखने के लिए भी अच्छे हैं। इतना ही नहीं खेल नौकरी लगने में भी मदद करते हैं। कोई भी दक्ष खिलाड़ी जब बड़ी सफलता हासिल करता है तब स्कूलों में कालेजों में और अनेक नौकरियों में उन्हें विशेष छूट दी जाती है,एक खास पदवी से नवाजा जाता है,जो उनके व्यक्तित्व के विकास में बहुत मददगार साबित होता है।खेल खेलना हमेशा से ही हम सभी के लिए बड़े होने का एक रोमांचक हिस्सा रहा है। हम बचपन के खेल और गैजेट मुक्त दिनों को खुशी के साथ याद करते हैं। खेल दोस्त बनाने और स्वस्थ रहने का एक शानदार तरीका है।  


सबसे अच्छी बात है कि पारंपरिक खेलों में महंगे  उपकरण की आवश्यकता नहीं है।भारतीय पारंपरिक खेल जैसे - खो-खो , कबड्डी , लंगड़ी  (एक पैर  से कूदना), स्किपिंग, सागर-गोटे (पांच पत्थर) और कई अन्य को खेलने के लिए महंगे उपकरण की आवश्यकता नहीं होती है, न ही किसी वर्दी या विशिष्ट जूते और  सामान की आवश्यकता होती है। बस,खेल के लिए लोगों की और खेलने के लिए जगह की आवश्यकता होती है।इसके अतिरिक्त इनसे जीवन कौशल का निर्माण होता है।इससे व्यायाम बढ़ता है और आँख-हाथ का समन्वय बेहतर होता है । कबड्डी और खो-खो जैसे  टीम गेम में  बच्चों को अपने प्रतिद्वंद्वी को हराने के लिए रणनीति बनाने की आवश्यकता होती है , जिससे उन्हें रणनीति बनाने और अपने मतभेदों को सुलझाने में मदद मिलती है।  इन खेलों से हमारी सांस्कृतिक विरासत में भी बढ़ोतरी होती है।

बच्चों को हमारी संस्कृति और परंपरा के बारे में बताना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि उन्हें  नए युग की अवधारणाएँ सिखाना। यह महत्वपूर्ण है कि वे अपनी जड़ों को जानें और उस पर गर्व महसूस करें।  भारतीय पारंपरिक खेल खेलकर बच्चे खेल के माध्यम से अपनी विरासत से जुड़ सकते हैं  और इसका उन पर आजीवन गहरा सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

ये खेल एक बेहतरीन संयोजक हैं देश, आयु, धर्म और यहां तक ​​कि सामाजिक  आर्थिक स्थितियों के पार भी।ये खेल सभी धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक सभी अंतरों को पाटते हैं, लोगों को एक साथ लाते हैं और  उन्हें भावनात्मक रूप से जोड़ते हैं। परिवार के रूप में पारंपरिक खेल खेलना परिवार को करीब लाता है, और बंधन को मजबूत बनाता है। बच्चों को बिना किसी ढांचे के खेलने के समय की आवश्यकता होती है और  परिवार की दिनचर्या में पारंपरिक खेलों को शामिल करना सभी के लिए एक बेहतरीन बंधन गतिविधि हो सकती है। जिन बच्चों के परिवार के साथ मजबूत  संबंध होते हैं, वे जीवन के अन्य सभी पहलुओं में भी अच्छा प्रदर्शन करते हैं।

 सच कहें तो पारंपरिक भारतीय खेल व्यावहारिक रूप में योग का विस्तार हैं। योग में आठ भाग होते हैं। इनमें से तीन शारीरिक तंदुरुस्ती, इंद्रियों को परिष्कृत करने, शरीर को मजबूत बनाने और अपनी सांसों को संतुलित करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। सभी भारतीय खेल आम तौर पर इन तीनों में से एक या अधिक को प्रोत्साहित करते हैं।बच्चों के विकास, व्यवहार और पारस्परिक कौशल के विभिन्न पहलुओं को विकसित करने में असंरचित खेल की महत्वपूर्ण भूमिका होती है , इसलिए बच्चों के जीवन में पारंपरिक खेल को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है।

          ©अर्चना अनुप्रिया






 








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