भूलता नहीं कभी मुझे वह
मस्त और सुहाना बचपन
कितना सरल, कितना निश्छल
वह मधुर चंचल लड़कपन..।
जीवन का वह ऊषाकाल
न चिंता, न कोई हलचल
शिशु-मन की दो चाहतें
भोजन और माँ का अंचल..।
हर पल मन का वह कौतूहल
हर दिन की नई आशाएँ,
शीघ्र हों बड़े, नभ को छू लें-
मन की कोमल कल्पनाएँ..।
कभी मचलना, कभी रूठना,
फिर गाकर माँ का दुलराना,
दूध से भरी कटोरी में ,
याद है, चँदा का आना..।
रोयें कभी तो आँसू संग ही,
हँस दें, भूलें पीड़ायें सारी,
नन्हीं-नन्हीं माँगों में ही,
छिपी नन्हीं खुशियाँ हमारी..।
बालपन की वे शरारतें,
छुपकर फूलों में आँख मिचौली,
धूल में सने घर को लौटें,
अहा ! कितनी मनरंजक होली..।
चुराकर पके बेर खाना फिर,
दबे पाँव अकेला आना,
मन को उड़ा ले जाता अब भी,
वो कंधे पर मेला जाना..।
आज भी सिहराता तन को,
डंडा बूढ़ी ताई का,
आज भी झुलाता मन को,
हाय! झूला अमराई का..।
था कितना मस्ताना जीवन,
हर पल की खुशियाँ थीं कितनी,
हँसना, भागना, खाना, खेलना,
हो जैसे दुनिया ही इतनी..।
यही याद दुःख में सुख देगी,
उम्र जब होगी पचपन की,
रहूँ सँजोये अपने दिल में,
मधुर अमानतें बचपन की..।
© अर्चना अनुप्रिया।
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