बदलना जरूरी है गाँधी के बंदरों को,
अगर बदलना है समाज…
बिखर रही है हर तरफ बुराई
तो जरूरी है सुनना,आवाज
रावण की,आतंक की,बुराई की
ताकि पता चल सके जड़ें उनकी
और हम डाल सकें उन जड़ों में
अच्छाई से बनाकर मठ्ठा…
बंद कानों को खोलना होगा
ताकि सुन सकें हम
हवाओं की जहरीली फुँफकार
मिटा सकें हिंसक तरंगें,
जो दूषित कर रहे हैं
कान, युवाओं के…
आँखें खोलकर देखना होगा
वे सारे काले रंग और तस्वीरें
जो समाज के दाग बन रहे हैं,
लाल रंगों से रंगी अस्मिताएँ,
धुएँ में धुँधलाती संस्कृति
और उन्हें साफ कर
भरने होंगे नये रंग-
प्रेम के, विश्वास के,
अहिंसा के,सच्चाई के…
खोलनी होगी अपनी जुबान
ताकि हम ऊँची आवाज में
प्रतिकार कर सकें जड़ पकड़ते
अपराधों का,कुरीतियों का,
विषधरों का,भ्रष्टाचार का
दिला सकें हर व्यक्ति को उसका
उचित अंश उसके अधिकार का…
इन्द्रियों को बंदकर..
बुराईयों से बचकर..
कालिमा से छुपकर..
गल्तियों से भागकर..
नहीं निभा सकते हम
अपनी मानवता का
दायित्व,जो हम पर है..
हमें अपना कर्तव्य
समझना जरूरी है
हर बुराई को अच्छाई में
बदलना जरूरी है
हमें ही गढ़ना है
स्वच्छ,सुंदर समाज
इसीलिए,हम नहीं
रह सकते बनकर
मूक,बधिर और नेत्रहीन...
अर्चना. अनुप्रिया।
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