“बूढ़ा स्वाभिमान”
कमली राशन लेकर घर लौट ही रही थी कि रास्ते में एक जगह भीड़ देखकर रुक गई।पूछने पर पता चला कि आज ‘महिला दिवस’ है और महिलाओं की स्वतंत्रता और उनके स्वाभिमान की रक्षा पर किसी बड़े नेता का भाषण चल रहा है। अनायास ही कमली के कदम उस ओर बढ़ गए। बीच चौराहे पर एक जगह स्टेज बँधा था और शहर के जाने-माने नेता, श्री रूपकुमार जी अपनी आवाज बुलंद कर स्त्रियों के स्वाभिमान और स्वतंत्रता पर जोर-शोर से बोल रहे थे--”नारी स्वतंत्रता हमारे देश का ही नहीं,वरन् एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना हुआ है।नारियों को हर तरह की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए… जब चाहें,जहाँ चाहें आये-जायें… जैसे चाहें रहें....जैसे चाहें कपड़े पहनें...अरे भाई, उन्हें भी तो स्वाभिमान से जीने का हक है..।आये दिन लड़कियों के विषय में तरह-तरह की खबरें सुनने को मिलती हैं, हमें समाज को सुधारना जरूरी है ताकि हमारी बच्चियाँ चैन से जीवन जी सकें….।” बड़ा ही ओजपूर्ण भाषण दिया नेता जी ने। मंच के सामने इकठ्ठी जनता ने खूब तालियाँ बजाईं,नेता जी के जयकारे लगाये और सरकार को नारी सशक्तिकरण की तरफ ध्यान देने के लिए धन्यवाद दिया।कमला को याद आया कि कैसे रूपकुमार जी ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और अपनी पत्नी के अंधे प्रेम में अपनी माताजी को वृद्धाश्रम में रखा हुआ है। महीने दो महीने में एकाध बार उनसे मिलने जाते हैं और माता जी के साथ अपनी तस्वीरें भर-भरकर सोशल मीडिया पर लगाकर वाहवाही लूटते रहते हैं।क्या गुजरती होगी उसकी माताजी के दिल पर जब वह अपने बेटे को मातृत्व का शोषण अपने राजनीतिक उपयोग के लिए करते हुए देखती होंगी..?कमली की आँखों में आँसू आ गए। सोचने लगी-”यह अच्छी बात है कि सारी दुनिया को चिंता है,लड़कियों के स्वाभिमान की,स्वतंत्रता की,उनके कपड़ों की,घूमने-फिरने की आजादी की..पर क्या किसी ने हम जैसी वृद्धाओं के बारे में भी कभी इतनी शिद्दत से सोचा है?क्या हम नारी नहीं हैं..? सारी उम्र हमने अपने परिवार और बच्चों के बारे में सोचा।पति की कमाई से पाई-पाई जुटाकर घर बनाया,जमीनें खरीदीं ताकि हमारे बच्चों को अपनी ख्वाहिशें नहीं दबानी पड़े।समाज को समृद्ध करने में हमने भी अपने-अपने स्तर से योगदान दिये.. परन्तु, वृद्ध होने पर बदले में अक्सर हमें तिरस्कार का सामना ही करना पड़ रहा है।बेटों को अच्छे संस्कार दिये,पढ़ाया लिखाया.. विवाह से पहले बेटा ध्यान भी देता था परन्तु, विवाह के बाद न जाने क्यों बदल गया।" पति के गुजरने के बाद कुछ समय तक तो बेटे-बहू ने कमली की देखभाल की,फिर घर और जमीन बहू ने अपने नाम करवा ली और अब यह हालत है कि अपना पेट भरने के लिए बुढ़ापे में उसे काम करना पड़ रहा है।कमली सोचने लगी-"मेरे जैसी न जाने कितनी माँयें होंगी जो अपना घर होते हुए भी किराए के मकान में रह रही होंगी,लेकिन बेटे-बहू को फर्क नहीं पड़ता।जिस घर में खून-पसीना लगाया,अब वहाँ बहू के मायके वाले रह रहे हैं, क्योंकि सरकार ने बहुओं को न जाने कितने अधिकार दे रखे हैं, भले वह कोई कर्तव्य करे या न करे...अगर कुछ कहूँ तो ससुराल वाले होने के कारण बगैर गलतियों के समाज के ताने सुनने पड़ते हैं।अधिकतर स्वयं सेवी संस्थाएँ नारियों और बहुओं की प्रताड़ना दिखाकर अवार्ड लेती रहती हैं, पर किसी को भी हम जैसी वृद्धाओं का दुःख क्यों नहीं दिखता..?थोड़े वृद्धाश्रम बनाकर वे समझते हैं कि जिम्मेदारी पूरी हो गई..?क्या हमें स्वाभिमान से जीने का हक नहीं है..?क्या हमारे त्याग और स्वाभिमान का कोई मोल नहीं है..?क्या नारियों पर बड़े बड़े भाषण देने वालों को हम वृद्ध नारियां नहीं दिखतीं..?समाज या सरकार न तो हमारी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेते हैं, न ही हमारी स्वतंत्रता और स्वास्थ्य के देखभाल की..।आये दिन कितने बनाव बनते रहते हैं, कितनी ही वृद्धायें अपने स्वाभिमान को कुचलकर अपने ही बेटे-बहू के ताने सुन-सुनकर जीने को विवश हैं।लोगों के सामने आदर्श बनकर दिखाने और बड़ी -बड़ी बातें करने से क्या होगा..?घर के अंदर उनके साथ हुए दुर्व्यवहार को कहाँ कोई देख पाता है…?
नारी-सुधारकों को जवान लड़कियों पर हुए अत्याचार दिखाई देते हैं, वृद्धाओं की परेशानियां और मजबूरियां क्यों नहीं दिखतीं..?ये कैसा नारी-सशक्तिकरण है? ये नेता, जो इतने जोर-जोर से भाषण दे रहे थे,अपनी माँओं के स्वाभिमान की रक्षा के लिए क्या करते हैं..?वृद्धा माँ कैसे जी रहीं हैं, कभी जाकर देखा भी है इन्होंने या यूँ ही वोट बटोरने के लिए उपक्रम करने में लगे हैं? कुछ इक्के-दुक्के को छोड़कर बाकी सब केवल नारी सशक्तिकरण पर भाषण ही देते हैं ताकि उन्हें वोट मिलते रहें, कभी अपनी वृद्धा माँ की सेवा नहीं की होगी, न कभी ये सोचा भी होगा कि समाज की अन्य वृद्धा माँयें कैसे जीती हैं..?...क्यों..?क्या वे नारी नहीं हैं..?क्या उन्हें अधिकार नहीं मिलना चाहिए..?क्या उनके बूढ़े होने से उनका स्वाभिमान स्वाभिमान नहीं रहा..?उसके जीते जी उसकी सम्पत्ति किसी और के नाम कैसे हो सकती है,क्या सरकार और समाज को इस बारे में नहीं सोचना चाहिए..?माना कि सरकार अब कानून बनाने के लिए जागरूक हो रही है ,उसने कुछ कानून बना भी लिया लेकिन, उसका पालन भी सही ढ़ंग से हो रहा है या नहीं, यह देखना भी तो सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए।आये दिन वृद्धाओं को लेकर कितनी घटनायें घटती रहती हैं समाज में,यह देखनेवाला भी तो होना चाहिए।”कमली का मन वितृष्णा से भर गया।नारी के सारे कर्तव्य निभा चुकने के बाद भी उसे लगा जैसे वह समाज का हिस्सा है ही नहीं।सास की बुराइयाँ सबको दिखती हैं, पर लड़कियां बहुएँ बनकर गलतियां कर रहीं हैं, ये किसी को नहीं दिखता..?कोई कहने की हिम्मत कर ले तो सारा समाज उसे ‘नारी का दुश्मन’ समझने लगता है।ये कैसा न्याय है..गल्तियां हम नहीं सुधारेंगे तो आगे चलकर समाज का कैसा भयावह स्वरूप हो जायेगा..?ऐसा नहीं है कि नारियों के अधिकार नहीं होने चाहिए पर बिना कर्तव्य के अधिकार बेमानी है।अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।अगर अधिकार के लिए अदालत है तो कर्तव्य सिखाने की जिम्मेदारी भी अदालत को ही उठानी होगी।एक वृद्धा माँ अपने सभी कर्तव्यों को पूरी कर चुकी होती है,इसीलिए उसके सभी अधिकारों पर पहला अधिकार भी उसी का होना चाहिए।”पता नहीं लोगों का ध्यान हमारे बूढ़े स्वाभिमान की तरफ कब जायेगा..?इस नारी सशक्तिकरण की आँधी में हम वृद्धायें कहीं छूट तो नहीं रहीं हैं..?बहुत त्याग कर लिया हमने अब अपने स्वाभिमान से कोई समझौता नहीं…।” कमली ने मन ही मन फैसला किया कि वृद्धा-नारियों के स्वाभिमान की तरफ सरकार और समाज का ध्यान आकर्षित करने के लिए जो संभव होगा, वह करेगी। महिला-दिवस ने एक बार फिर उसके बूढ़े होते स्वाभिमान को जवान कर दिया था।
….अर्चना अनुप्रिया...
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