काला वजूद परछाई का बताता है हमें..
रौशनी के पीछे का अँधेरा याद रखा करो..
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रिश्तों की तुरपाई जज्बातों से हो तो अच्छा..
मनभेद की रिहाई मुलाकातों से हो तो अच्छा..
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कीमत तो अदा करनी ही पड़ेगी..
शब्दों की भी,खामोशी की भी..
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दौलतमंद कोठियों में रहने का असर है शायद..
जीता जागता इन्सान अब पत्थर होने लगा है..
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खुदा को बोलकर बताने की जरूरत कहाँ होती है...?
वो पढ़ लेता है दिल में छुपी धड़कनें..
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मुझे क्या,हमें क्या,तुम्हें क्या,उसे क्या
रिश्ता और समाज ऐसे ही खत्म हो रहा..
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