कुछ दिन पहले अखबार पढ़ते हुए एक अजीब और आश्चर्यजनक वाकया मेरी नजरों से गुजरा। एक शहर में 6 वर्षीय लड़के ने 3 वर्षीय लड़की से बलात्कार किया और गला दबाकर उसे मारने की कोशिश की।इस वाकये को पढ़कर मैं तो सन्न रह गई। एक गहरी सोच ने मुझे आ घेरा... "आखिर इस समाज में हो क्या रहा है?..कहाँ और किस तरफ जा रही है हमारी आने वाली पीढ़ियाँ..?किस तरह के संस्कार मिल रहे हैं हमारे बच्चों को..? 6 वर्ष का बच्चा मां का आंचल, उसकी ममता, मनपसंद भोजन, बाप का कंधा और खेलने के लिए खिलौने के लिए मचलता है.. ऐसे में 3 वर्षीय छोटी नन्हीं सी बच्ची में उस 6 वर्ष के बच्चे ने ऐसा क्या देखा होगा कि उसने इतना घृणित कार्य करने का सोचा... क्या वह बलात्कार का मतलब ही समझता होगा... आखिर इतनी छोटे से बच्चे को किस तरह के आवेग ने ऐसा करने को मजबूर किया होगा…??..वगैरह वगैरह कई प्रश्न मेरे मन में कौंधने लगे। फिर एक विचार मन में उठा कि कहीं यह टीवी चैनलों पर चलती हुई खबरों का असर तो नहीं..? टीवी पर सुन सुनकर हो सकता है कि बच्चे ने बलात्कार जैसे घृणित अपराध को को एक आम क्रीडा या क्रिया समझ लिया होगा क्योंकि व्यवहार की खुराक तो सुनने और देखने से ही ज्यादा मिलती है और टी.वी. चैनलों पर ऐसी खबरें इतनी बार और इस तरह दिखाते हैं कि उसके पीछे की गंभीरता ही समाप्त सी हो जाती है। वजह चाहे कुछ भी हो पर इस तरह की पनपती मानसिकता समाज के लिए चिंता का विषय है।मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और एक व्यक्ति की पहली पाठशाला उसका अपना परिवार ही होता है। यह परिवार समाज का एक अभिन्न अंग है,जिससे समाज का निर्माण होता है।परिवार ही वह जगह है, जहाँ हमें सबसे पहले शिक्षा मिलती है। परिवार और समाज के अनुरूप ही एक व्यक्ति में सामाजिक गुणों और विशेषताओं का विकास होता है। आज हमारे समाज का स्वरूप बहुत तेजी से बदल रहा है,जो बदलते हुए हालात और परिवार का द्योतक है।वैसे तो परिवर्तन एक शाश्वत नियम है और जरूरी भी है परंतु जिस तरह से हमारे समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है और नकारात्मकता बढ़ती जा रही है वह हमारे समाज और आने वाली पीढ़ियों के लिए बिल्कुल सही नहीं है।सुबह समाचार पत्र पढ़ें या टीवी के चैनलों पर समाचार सुनें.. नकारात्मकता इतनी बुरी तरह हावी होती है कि छोटे बच्चों का अपरिपक्व दिमाग उसे सुनकर, पढ़कर और देखकर विकृति की तरफ अकस्मात ही खींचा जा रहा है, जो बिल्कुल ठीक नहीं है। टीवी चैनल हिंसा, बलात्कार जैसे अनैतिक दृश्यों को बार-बार दिखाकर समाचार और अपने चैनल के दर्शकों की संख्या बढ़ाने में लगे रहते हैं। ऐसे में वे यह विचार ही नहीं करते कि छोटे बच्चे जो उनके चैनलों से चिपके रहते हैं उनकी सोच पर दिखाए जाने वाले उन दृश्यों और कहे जाने वाले उन शब्दों का क्या असर हो रहा है।
समाज और व्यक्ति एक दूसरे के पूरक होते हैं, एक के बिना हम दूसरे के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते| मैकाइवर के अनुसार- “व्यक्ति तथा समाज का सम्बन्ध एक तरफ का सम्बन्ध नहीं है इनमें से किसी एक को समझने के लिए दोनों ही आवश्यक हैं|”अरस्तू के अनुसार- “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है"। इस बात का सरल अर्थ यह है कि मनुष्य अपने अस्तित्व और विकास के लिए समाज पर जितना निर्भर है उतना और कोई प्राणी नहीं| मनुष्य में हम जो भी कुछ सामाजिक गुण देखते हैं वह समाज की ही देन है|”इसीलिए समाज के हर व्यवहार पर कड़ी नजर जरूरी है।
प्राचीन काल में पाठशालाओं में धार्मिक और नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग थे| अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा नीति को धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा से बिलकुल अलग रखा।उन्होंने राज्य द्वारा संचालित विद्यालयों में इस शिक्षा को पूर्ण रूप से बंद करके धार्मिक तटस्थता की नीति का अनुसरण किया| स्वतन्त्र भारत में भी देश को धर्म निरपेक्ष घोषित कर कहा गया कि राज्यकोष से चलाई जाने वाली किसी भी संस्था में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी|कुछ हद तक यह सही भी है परन्तु, सोचने वाली बात यह है कि धर्म चाहे कोई भी हो,नैतिकता से परिपूर्ण होता है।तभी तो उसे करने याग्य कर्म या धर्म का नाम दिया गया है।वस्तुतः,धर्म किसी ईश्वर के रूप से नहीं ईश्वरीय गुणों से संबंध रखता है।हर नैतिक शिक्षा लोगों तक पहुँचनी चाहिए। हरबर्ट के अनुसार- “नैतिक शिक्षा, शिक्षा से पृथक नहीं है जहाँ तक नैतिकता,या धर्म का अर्थ है इन दोनों का अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर है| इस बात को इस प्रकार कहा जा सकता है कि धर्म के बिना नैतिकता का और नैतिकता के बिना धर्म का अस्तित्व नहीं है|”किसी भी व्यक्ति में नैतिक मूल्यों का होना ही धर्म है और नैतिक मूल्यों के अनुरूप आचरण ही उसे चरित्रवान बनाता है| दूसरे शब्दों में नैतिक मूल्यों का पालन ही सदाचार है| सदाचार व्यक्ति को देवत्व की ओर ले जाता है और दुराचार उसे पशु बना देता है| राम, कृष्ण, गौतम बुद्ध एवं विवेकानंद साक्षात ईश्वर इसलिए माने जाते हैं क्योंकि इनके कर्म नैतिक मूल्यों के अनुरूप थे| उनमें चरित्र-बल था, सच्चरित्रता थी| नैतिक मूल्यों- सत्यप्रियता, त्याग, उदारता, विनम्रता, करुणा, ह्रदय की सरलता और अभिमान हीनता के बारे में सभी को पता है पर इन मूल्यों के अनुरूप आचरण करने वाले या ये कहें कि अपने जीवन में इसे उतारने वाले व्यक्तियों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है| इसका मुख्य कारण जो मुझे समझ में आ रहा है वो ये है कि आज का व्यक्ति समाज की अनदेखी कर रहा है। वह स्वयं को महत्व ज्यादा दे रहा है और समाज को कम| समाज भी व्यक्ति के सही-गलत आचरण के प्रति तटस्थ रवैया अपना रहा है,जो सही नहीं।
एक व्यक्ति की प्राथमिक पाठशाला उसका अपना परिवार होता है और परिवार समाज का एक अंग है जहाँ हमें सबसे पहले शिक्षा मिलती है| परिवार और समाज के अनुरूप ही एक व्यक्ति में सामाजिक गुणों तथा विशेषताओं का विकास होता है| आज हमारे समाज का स्वरूप तेजी से परिवर्तित हो रहा है, ये भी सही है कि परिवर्तन इस संसार का नियम है लेकिन जिस तरह से हमारे समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है, वो सही नहीं है|हरबर्ट के अनुसार- “नैतिक शिक्षा, शिक्षा से पृथक नहीं है जहाँ तक नैतिकता और धर्म का अर्थ है इन दोनों का अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर है| इस बात को इस प्रकार कहा जा सकता है कि धर्म के बिना नैतिकता का और नैतिकता के बिना धर्म का अस्तित्व नहीं है|”
किसी भी व्यक्ति में नैतिक मूल्यों का होना ही धर्म है, नैतिक मूल्यों के अनुरूप आचरण ही उसे चरित्रवान बनाता है| दूसरे शब्दों में नैतिक मूल्यों का पालन ही सदाचार है| सदाचार व्यक्ति को देवत्व की ओर ले जाता है और दुराचार से पशु बना देता है| जो ईश्वर तुल्य बने वे इसीलिये बने क्योंकि इनके कर्म नैतिक मूल्यों के अनुरूप थे| उनमें चरित्र-बल था, सच्चरित्रता थी| नैतिक मूल्यों- सत्यप्रियता, त्याग, उदारता, विनम्रता, करुणा, ह्रदय की सरलता और अभिमान हीनता के बारे में सभी को पता है लेकिन इन्हें व्यवहार में लाना जरूरी है। हर इन्सान के भीतर सही-गलत का निर्णय करने के लिए अंतरात्मा है, जिसकी आवाज हमें सही और गलत का अंतर बताती है| ये बताती है कि कौन सा कार्य सही है और कौन गलत, हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए| अगर हम सभी अपनी अंतरात्मा की आवाज के अनुरूप आचरण करें तो नैतिक मूल्यों की उपेक्षा कभी नहीं करेंगे|
व्यक्ति के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का मुख्य उत्तरदायित्व परिवार और विद्यालय पर होता है और ये उत्तरदायित्व तभी पूरा किया जा सकता है जब वह उसे आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा प्रदान करे| शिक्षा आयोग के शब्दों में विद्यालय पाठ्यक्रम का एक गंभीर दोष है सामाजिक, नैतिक और अध्यात्मिक मूल की अव्यवस्था और मानवीय शिक्षा की अनुपस्थिति।सद्गुणों को अपना कर ही हमें सच्चा सुख, संतोष और आनंद प्राप्त हो सकता है| आज हमारा समाज नैतिक पतन की ओर अग्रसर हो रहा है| यदि हर व्यक्ति सदाचार के महत्व को समझे और चरित्र-बल का विकास करे तो छल-कपट, पाखंड, व्यभिचार, षड्यंत्र और संघर्षों से हमारा समाज मुक्त हो सकता है| मेरे विचार से हर व्यक्ति सबसे पहले स्वयं को समय दे, चिंतन-मनन करे और आत्मविश्लेषण करे| अपनी अंतरात्मा की आवाज को अनसुना न करे| परिवार, मित्रों, रिश्तेदारों और समाज के लिए भी समय निकाले, विशेषतः बच्चे जो कल देश का भविष्य बनेंगे उन्हें धर्म और नैतिक मूल्यों का महत्व समझाएँ।-एक एक अच्छे व्यक्ति से एक अच्छा परिवार बनेगा, एक-एक अच्छे परिवार से एक अच्छा समाज और एक अच्छा समाज ही सुसंस्कृत देश की पहचान बनेगा।
© अर्चना अनुप्रिया
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