"राजा राम की मर्यादा"
पिछले दिनों लोकसभा के चुनाव के दौरान "परिवारवाद" और "राष्ट्रवाद" पर चारों तरफ बहुत चर्चाएँ हुईं... और अंततः, यह सिद्ध हुआ कि जो व्यक्ति परिवार एवं अन्य माया-मोह से ऊपर उठकर सिर्फ 'राष्ट्रहित' के विषय में सोचता है और राष्ट्र के लिए ही पूरी तरह समर्पित है, वही कुशल प्रशासक हो पाएगा, उसी को जनता अपना प्रधान बनायेगी और फिर वही राष्ट्र चलाने का अधिकारी होगा..। इसके अतिरिक्त एक और बात उभर कर सामने आई कि यदि राष्ट्र प्रधान राज्य और प्रजा के लिए कोई नीति निर्धारित करता है या प्रजा के हित में कोई कार्य कार्यान्वित करता है तो लोगों को दिखना भी चाहिए,जिसके लिए उससे प्रमाण और सवालों के जवाब मांगे जा सकते हैं और राष्ट्र के प्रधान को उससे संबंधित हर सवाल का जवाब और प्रमाण देना जरूरी भी है।….
इन सारी चर्चाओं और प्रमाणों को लेकर हुए बहसों के बीच एक बात जो बरबस मेरा ध्यान खींचती रही वो यह कि राजा राम पर 'सीता की अग्नि परीक्षा' और उनके 'परित्याग' के जो आरोप हम अक्सर लगाया करते हैं वह शायद इसी राजा धर्म को निभाने की उन की प्रक्रिया का हिस्सा रही होगी। त्रेता युग में उस काल में जब राक्षसों और आततायियों का आतंक बढ़ रहा था...यही राम महलों की सुख-सुविधा छोड़कर राक्षसों को खत्म करने हेतु प्रशिक्षित हुए थे।....भाई धर्म निभाया... पुत्र धर्म निभाया…. पति धर्म निभाया...इतने बड़े राजा के पुत्र होकर जंगल की खाक छानी...पत्नी धोखे से अपहरण कर ली गई….दुखी भी हुए...पर ना रुके, ना थके, ना झुके... चाहते तो दूसरा विवाह भी कर सकते थे... उनके पिता की ही तीन रानियां थीं.. पर उन्हें तो सीता से ही प्रगाढ़ प्रेम था और इसीलिए सीता की खोज में कई हजार किलोमीटर दूर तक चल कर गए...।..राज्य से कोई मदद नहीं ली ।अकेले ही अपने भाई को साथ लेकर पत्नी को ढूंढने निकल पड़े। तब ना तो गूगल था... ना ही जीपीएस सिस्टम...। जंगल में ही बंदरों की सेना बनाई,समुंदर पर ऐसा पुल निर्माण किया कि आज का विज्ञान भी हैरत में है.. लंका पहुंचे, रावण की विशाल सेना से युद्ध किया और रावण को उसी के राज्य में परास्त कर सीता को वापस लाने में कामयाब हुए।
सीता के प्रति उनका यह प्रेम ही तो था जो उन्होंने सीता के लिए इतना सब कुछ किया। वह जानते थे कि राजा बनने के बाद इस बात को लेकर उन पर उंगलियाँ उठ सकती हैं….शायद इसीलिए उन्होंने प्रमाण -स्वरूप सीता की परीक्षा ली होगी ताकि जब सीता उनके साथ राजगद्दी पर प्रजा की माता के रूप में विराजमान हो तो एक भी प्रजा के मन में किसी भी तरह की शंका की गुंजाइश न रहे।सीता के प्रति यह उनका अनन्य प्रेम ही था कि वह सीता की तरफ एक भी ऊँगली उठने से पहले ही प्रजा को आश्वस्त कर देना चाहते होंगे …. फिर भी, जब अपनी प्रजा के किसी एक समुदाय की तरफ से आवाज उठी तो उसके समाधान के लिए उन्होंने सीता को राज्य से अलग कर दिया...परन्तु...स्वयं से अलग नहीं किया….हमेशा "एक पत्नी धर्म" निभाया...। सीता,जिन्हें वह अपने प्राणों से ज्यादा प्रेम करते थे, उनका परित्याग नहीं किया... न ही जंगल में छोड़ा जैसा कि आमतौर पर फिल्मों में या सीरियलों में दिखाया जाता है बल्कि सीता की सहमति से ही उन्हें गुरु वाल्मिकी के पास भेज दिया...इस तथ्य का तुलसीदास जी ने अपनी 'गीतावली' में बखूबी जिक्र किया है। श्री राम के इस फैसले में सीता जी भी उनके साथ थीं। भला यह कैसे हो सकता था कि "रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाइ वरु वचन न जाइ"-- जैसी नीति पर चलने वाले रघुकुल के राम विवाह के वक्त पत्नी को दिया हुआ वचन तोड़ देते...स्वयं उन्हीं के पिता, राजा दशरथ ने तो पत्नी का वचन निभाते हुए ही उन्हें वनवास दिया था।
हम बड़ी आसानी से आक्षेप लगा तो देते हैं पर तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सोचें तो राम और सीता दोनों का कितना बड़ा त्याग और कितनी बड़ी महानता दिखाई देती है।हर रिश्ते और हर ओहदे में मर्यादा स्थापित करने वाले राम और उनके हर फैसले में उनका साथ देने वाली सीता यूँ ही पूजनीय नहीं हैं। महलों में जन्म लेने के बावजूद बिना किसी शिकायत इतना दुख झेलने वाले पति-पत्नी राक्षस-काल में एक आदर्श समाज की स्थापना हेतु जीवनपर्यंत त्याग की प्रतिमूर्ति बने रहे। सीता भी एक आदर्श नारी की तरह अपने राजा पति की पत्नी और राज्य की रानी के रूप में राजधर्म की स्थापना के लिए हर कदम पर उनके फैसले में उनका साथ देती रहीं।सामान्यतः कितने लोग ऐसा कर सकते हैं..? राजा राम ने सीता की सहमति से उन्हें राज्य-सीमा के बाहर एक सुरक्षित छत्रछाया में भेज कर समाज के लिए बहुमूल्य संदेश स्थापित किया कि जो भी राजा है या राज्य-प्रधान है, वह हर तरह की मोह माया से ऊपर उठकर अपने परिवार और प्रजा को एक तराजू पर रखे...परिवार धर्म और राजधर्म- दो अलग-अलग बातें हैं और राज्य प्रधान बनने की विधि चाहे कोई भी हो, एक बार राज्य की जिम्मेदारी उठाने के बाद राज्य का हर एक व्यक्ति राजा की नजर में न केवल बराबर होना चाहिए, बल्कि सभी के लिए न्याय भी एक जैसा ही होना चाहिए..… तभी वह प्रजा का भरोसा पाने में सफल होगा और सही मायने में राजा बनने का अधिकारी होगा।
सोचिए, अगर रामचंद्र जी ने उन पर उँगली उठाने वाले लोगों को सजा दे दी होती... या सब की बात अनसुनी कर सीता को साथ ही रखते... या कोई दूसरा विवाह कर लेते... उन दिनों तो दो-तीन विवाह होते ही थे...तो क्या हम उन्हें अपना आदर्श बनाते या उनके उदाहरणों का अनुकरण करते…? हम जैसे तुच्छ प्राणी तो आज तक समाज में होने वाली ऐसी किसी भी घटना के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराते रहते..।यह राम और सीता का अनन्य प्रेम ही था कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया...पति-पत्नी का ऐसा त्याग भला आपसी प्रगाढ़ प्रेम और एक-दूसरे पर अनन्यविश्वास के बिना संभव है क्या.…?
उस समय के राक्षसों द्वारा पतित होते समाज को उन दोनों के त्याग ने एक नया आदर्श रूप दिया, जिस पर हम आज भी गर्व करते हैं।...एक ऐसा आदर्श-समाज, जो युगों तक चलने वाले इंसानी समाज और कालांतर में आती रहने वाली कुरीतियों को साफ करने का पैमाना बना हुआ है….विश्व की हर संस्कृति से उत्तम और मर्यादा से भरा पड़ा है ।हम उन्हें यूँ ही ईश्वर का अवतार नहीं मानते….कितना बड़ा त्याग था राम और उनकी पत्नी सीता का समाज से राक्षसी वृत्ति निकालकर आदर्श और मर्यादा स्थापित करने में..।
समाज की सोच कभी नहीं बदलती...हर युग में जनता की अपेक्षाएं अपने राज्य प्रधान से वैसी ही होती हैं--"पूर्णतया राज्य और समाज के लोगों के लिए समर्पित और विशुद्ध न्याय की मूर्ति"..।
जिन्हें हम चाहते हैं,अपना सिरमौर बनाने की चाह रखते हैं और अनुकरण करते हैं, उनके सफेद कपड़ों पर बदनामी का एक भी छींटा हम बर्दाश्त नहीं कर पाते…। आज भी तो हर बात का हम प्रमाण मांगते रहते हैं और राष्ट्र प्रधान को जवाब देना तथा प्रमाण देना जरूरी होता भी है ताकि निश्चिंत होकर प्रजा उस पर जिम्मेदारी सौंप सके।
सोचने की बात है...भला जो व्यक्ति अपनी पत्नी के लिए इतनी ऐतिहासिक लड़ाई लड़ सकता है,ऐसे राम-राज्य की स्थापना करता है,जिसमें हर स्त्री-पुरूष के लिए न्याय है,हर व्यक्ति सुखी है, जिसकी "राम-राज्य" की व्यवस्था को पाने के लिए हम आज भी लालायित हैं...वह क्या नारी का अपमान होने देगा….?हम जैसे स्वार्थी और छोटी सोच के लोग राम और सीता की ईश्वरीय सोच और त्याग की महानता को क्या समझ पायेंगे…?
जय सियाराम..
अर्चना अनुप्रिया।
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