एक रिश्ता अनाम सा
धरती और आकाश के बीच
सृष्टि के आरंभ से ही
पनपता,परिपक्व होता
क्षितिज पर कहीं मिल कर भी
नहीं मिल पाते हैं दोनों
एक अनबुझ सी प्यास
बनी रहती है उस रिश्ते में
प्रेम की प्यास से अकुलाती धरती
जब सूखकर बुझने लगती है
तब चीरकर सीना आकाश
सभी विरोधियों का, बादलों का
रस बरसाता है दीवाना बनकर
टूटकर प्रेमी कर देता है प्रेमरस से
सराबोर अपनी प्रेमिका को
धूप और चांदनी सी बाँहें उसकी
घेर लेती हैं आगोश में धरा को
खिल जाती है धरा पाकर
आसमां का निश्छल प्रेम रस
दूर हैं,मगर पास हैं दोनों
और उनके सनातन प्रेम-रिश्ते
की अलौकिक उपज हैं-
इंसान और हरियाली
दूरियों में भी नज़दीकियाँ हैं
क्योंकि यह रिश्ता है दोनों में
प्रेम का, विश्वास का, सृजन का..
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