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Writer's pictureArchana Anupriya

"राष्ट्र-जागृति"




जन-जन इस क्षण मन में अशांत,

यह सोच बुद्धि है श्रांत-क्लांत..

भारत कैसे विकसित होगा? 

कैसे यह नव निर्मित होगा?.. 


क्या है विकल्प का एक रुप? 

परिहास विकट, कितना अनूप? 

हम कुछ नेताओं को निहार 

सो जाते हैं चादर पसार..


पर कुछ को ही आधार बना, 

नवराष्ट्र न विकसित होता है.. 

जनमानस का संकल्प-बीज, 

श्रम-कण से सिंचित होता है.. 


है राष्ट्र तभी बनता महान, 

जब कोटि-कोटि का स्वाभिमान.. 

जगता है, करता है प्रयाण, 

अनुशसित श्रम,तप विकल प्राण..


उगता है कल्प-वृक्ष स्वर्गिक,

बलिदान रक्त से ही सिंचित..

है अगर समृद्धि की इच्छा तो, 

मत श्रम से विमुख बनो किंचित.. 


हर युग में रावण होता है, 

सोने की लंका बनती है.. 

सोने के मृग की चकाचौंध, 

कुटियों की सीता छलती है.. 


तब रावण से लड़कर ही, 

सीता मुक्त कराई जाती है.. 

आसुरी वृत्तियाँ मिटती हैं,

सद्वृत्ति प्रतिष्ठा पाती है..


जन जन का श्रम-सेतु ही, 

पाट सकता है दुर्दिन की खाई..

जब न्याय जूझने को तत्पर, 

होता, तब मिटता अन्यायी..


मानस तब तक रहता दुर्बल,

जब तक वह निर्भर होता है.. 

जब ठान कुछ बनता मानी, 

वृद्धि का निर्झर होता है.. 


अधिकार न माँगे मिलता है, 

अधिकार छीनना होता है.. 

यह मंत्र ना होता सिद्ध मात्र 

जप से, पर जीना होता है…

           ©अर्चना अनुप्रिया

           

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