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Writer's pictureArchana Anupriya

लोकतंत्र में क्यों जरूरी है चुनाव..?

भारत और अमेरिका जैसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में आजकल चुनावों का माहौल छाया है।चुनाव राष्ट्र का बहुत ही महत्वपूर्ण पर्व है क्योंकि इसी के आधार पर लोकतंत्र की सफलता निहित है।एक अति सामान्य नागरिक को भी विशेष अधिकार द्वारा सरकार बनाने या सत्ता से बाहर करने की प्रक्रिया चुनाव कही जाती है। लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें मूलतः जनता की प्रधानता होती है। उन्हें स्वतंत्रता और मानव अधिकार प्राप्त होते हैं और वे ही अपने राज्य की सरकारों का चयन करते हैं। वैसे तो विश्व में साम्यवाद,तानाशाही, राजशाही जैसी कई शासन प्रणालियाँ हैं, लेकिन लोकतंत्र इन सभी शासन प्रणालियों की तुलना में श्रेष्ठतम माना गया है। ऐसा शायद लोकतंत्र में लोगों के महत्व की अधिकता की वजह से संभव हुआ है। लोगों के पास चुनावों द्वारा अपनी सरकार चुनने की शक्ति होती है। अन्य सभी शासन प्रणालियों में सरकार निरंकुश हो भी सकती है परंतु, लोकतंत्र में सरकार के निरंकुश होने की संभावना बहुत कम होती है क्योंकि अंतिम निर्णय जनता के हाथों में होता है।जनता के चुनाव संबंधी निर्णय ही सरकार बनाते और गिराते हैं। इसीलिए, लोकतंत्र में चुनाव व्यवस्था अत्यधिक महत्वपूर्ण है। चुनावी व्यवस्था को लोकतंत्र का आधार कहें तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। चुनाव लोकतंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए बहुत ही आवश्यक है।एक लोकतांत्रिक देश के हर नागरिक का यह कर्तव्य होना चाहिए कि चुनावी प्रक्रिया में भागीदार बनें और मतदान करके लोकतंत्र का महत्वपूर्ण कार्य करें। हमें यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि यदि मैं वोट नहीं दूँ तो क्या फर्क पड़ेगा... ऐसा इसलिए क्योंकि कई बार चुनाव में एक ही वोट द्वारा हार जीत का फैसला होता है। लोकतांत्रिक देश के चुनाव उस देश के नागरिकों को शक्ति प्रदान करते हैं जिससे हर एक नागरिक मतदान द्वारा स्वार्थी या विफल शासकों और सरकारों का तख्तापलट कर सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा सकता है। लोकतंत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक तथा शासकीय पद पर अच्छे और ईमानदार व्यक्ति ही चुनकर आएँ। यह जनता के बहुमूल्य वोटों की ताकत से ही संभव है। इसीलिए अमीरी, गरीबी, धर्म, जाति आदि किसी भी प्रकार के भेदभाव से ऊपर उठकर देश के हित के लिए मतदान किया जाना चाहिए ताकि देश का विकास और जनता की भलाई संभव हो।

चुनाव और राजनीति...

एक लोकतांत्रिक देश के अच्छे विकास और कार्यान्वयन के लिए चुनाव के साथ स्वस्थ राजनीति का होना अनिवार्य है। इसकी चुनावी प्रतिद्वंदिता जनता के हित के लिए अत्यावश्यक और लाभकारी है। हालांकि इसके नुकसान भी बहुत देखने को मिल रहे हैं परंतु, फिर भी लोगों के पास विकल्प हो तो तुलनात्मक प्रक्रिया के तहत बेहतर सरकार चुनने की संभावना बनी रहती है। वर्तमान राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप का दौर है, जिसकी वजह से जनता दुविधा में रहती है और अच्छे ईमानदार लोग राजनीति में आने से कतराते हैं।इसीलिए राजनीति का सकारात्मक होना लोकतंत्र की सफलता के लिए अत्यावश्यक है।


चुनाव प्रणाली...

लोकतंत्र में चुनाव प्रणाली का भी बहुत महत्व है। भारतवर्ष में लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव हर 5 वर्षों के अंतराल पर होते हैं।5 वर्षों के बाद चुने हुए सभी प्रतिनिधियों का कार्यकाल समाप्त हो जाता है, लोकसभा और राज्यसभा भंग हो जाती है और फिर से अगले कार्यकाल की सरकार के लिए चुनाव कराए जाते हैं। कई बार सारे प्रदेशों के विधानसभा चुनाव एक साथ होते हैं, जिन्हें विभिन्न चरणों में संपन्न कराया जाता है। इसके विपरीत, लोकसभा के चुनाव सारे देश में एक साथ संपन्न होते हैं, जिन्हें निर्वाचन आयोग विभिन्न चरणों में संपन्न करा सकता है।

भारतीय संविधान के भाग 15 में अनुच्छेद 324 से अनुच्छेद 329 तक निर्वाचन की व्याख्या की गई है। अनुच्छेद 324 में निर्वाचनों का अधीक्षण,निर्देशन और नियंत्रण का निर्वाचन आयोग में निहित होना बताया गया है। संविधान में अनुच्छेद 324 ने निर्वाचन आयोग को चुनाव संपन्न कराने की जिम्मेदारी दी है। चुनाव आयोग एक ऐसी संस्था है, जिसका कार्य है चुनाव से संबंधित समस्त कार्यों को वहन करना।पहले निर्वाचन आयोग केवल एक सदस्यीय संगठन था लेकिन बाद में राष्ट्रपति अधिसूचना के द्वारा दो और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति कर दी गई। लोकसभा की कुल 543 सीटों में से विभिन्न राज्यों से अलग-अलग संख्या में प्रतिनिधि चुनकर आते हैं और इसी प्रकार अलग-अलग राज्यों की विधानसभाओं के लिए अलग-अलग संख्या में विधायक चुने जाते हैं। नगरीय निकाय चुनावों का प्रबंध राज्य निर्वाचन आयोग करता है जबकि लोकसभा और विधानसभा चुनाव भारत निर्वाचन आयोग के नियंत्रण में होते हैं,जिनमें व्यस्क मताधिकार द्वारा मतदाता प्रत्यक्ष मतदान के माध्यम से सांसद एवं विधायक चुनते हैं।भारत में मतदान करने की निम्नतम आयु सीमा 18वर्ष निर्धारित की गयी है। भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को उसके पसंद की प्रतिनिधि को मतदान करने का अधिकार देता है।इसके साथ ही भारत के संविधान में इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि देश की राजनीति में हर वर्ग को समान अवसर मिले यही कारण है कि कमजोर तथा दलित समुदाय के व्यक्तियों के लिए कई क्षेत्रों के निर्वाचन सीट आरक्षित रहते हैं, जिन पर सिर्फ इन्हीं समुदायों के लोग चुनाव लड़ सकते हैं।भारतीय चुनावों में वही व्यक्ति मतदान कर सकता है जिसकी उम्र 18 वर्ष या उससे अधिक है। इसी तरह यदि कोई व्यक्ति चुनाव लड़ना चाहता है तो उसे अपना नामांकन कराना होता है जिसके लिए न्यूनतम आयु 25 वर्ष तक की गई है। भारत में कोई भी व्यक्ति दो तरीकों से चुनाव लड़ सकता है किसी दल का उम्मीदवार बन कर उसके चुनाव जिन्हें सामान्य भाषा में टिकट के नाम से भी जाना जाता है और दूसरा तरीका है निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर..। दोनों ही तरीकों में उम्मीदवारों द्वारा नामांकन पत्र भरना और जमानत राशि जमा करना अनिवार्य होता है। इसके साथ ही वर्तमान समय में चुनावी प्रक्रिया में विभिन्न प्रकार के परिवर्तन किए जा रहे हैं ताकि अधिक से अधिक ईमानदार तथा स्वच्छ छवि के लोगों को राजनीति में आने का मौका मिल सके। इसी तरह के बदलाव के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश देते हुए सभी उम्मीदवारों के लिए घोषणा पत्र भरना अनिवार्य कर दिया है जिसमें उम्मीदवारों को अपने खिलाफ चल रहे गंभीर आपराधिक मामलों, परिवार के सदस्यों की संपत्ति तथा कर्ज का ब्यौरा तथा अपनी शैक्षणिक योग्यता की जानकारी देनी होती है।


चुनाव की आवश्यकता…

कई बार लोगों द्वारा यह प्रश्न उठाया जाता है कि आखिर चुनाव की आवश्यकता क्या है?यदि चुनाव न भी हो तो भी देश में शासन तो चलाया ही जा सकता है। लेकिन, इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि जहाँ भी शासक, नेता या फिर उत्तराधिकारी चुनने में भेदभाव या जोर जबरदस्ती हुई है वह देश या स्थान कभी विकसित नहीं हुआ और उसका विघटन अवश्य हो जाता है। यही कारण था कि राजशाही व्यवस्थाओं में भी राज पद के लिए राजा के सबसे योग्य पुत्र का ही चुनाव किया जाता था। महाभारत में हमें इसका सबसे अच्छा उदाहरण मिलता है, जहाँ भरत वंश के सिंहासन पर बैठने वाले व्यक्ति का चुनाव ज्येष्ठता के आधार पर न होकर श्रेष्ठता के आधार पर होता था।लेकिन, जब भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा के वजह से कुरुवंश की राजगद्दी नहीं स्वीकार की तो अत्यंत ही नकारात्मक प्रभाव दिखा और इसके नकारात्मक परिणाम की वजह से कुरु वंश का नाश हो गया। वास्तव में चुनाव हमें विकल्प देते हैं कि हम किसी चीज में बेहतर विकल्प को चुन सकें।यदि चुनाव न हो तो समाज में निरंकुशता और तानाशाही का बोलबाला हो जाएगा,जिसके परिणाम सदैव ही विध्वंसक रहे हैं। जिन देशों में लोगों को अपने नेताओं को चुनने की आजादी होती है, वह सदैव ही प्रगति करते हैं। यही कारण है कि चुनाव इतने महत्वपूर्ण और आवश्यक हैं।देखा जाये तो चुनाव और लोकतंत्र एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है। वास्तव में लोकतंत्र के विकास के लिए चुनाव बहुत ही आवश्यक है।यदि एक लोकतांत्रिक देश में निश्चित अंतराल पर चुनाव न कराए जाएँ तो वहाँ निरंकुशता और तानाशाही का बोलबाला हो सकता है।इसीलिए एक लोकतांत्रिक देश में निश्चित अंतराल पर चुनाव का होना अति आवश्यक है।


चुनाव प्रणाली के दोष…


मतदान से पूर्व भागीदारी का अभाव

व्यस्त मताधिकार प्रणाली का उद्देश्य सभी नागरिकों को शासन में अप्रत्यक्ष रूप से भागीदार बनाना है। लेकिन, लोकसभा, राज्यसभा तथा राज्य विधानसभा चुनावों में एक बड़ी संख्या में मतदाता अपना वोट देने जाते नहीं हैं। इस कारण मतदाताओं के बहुमत से निर्वाचित हुआ व्यक्ति सही मायने में जनता का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता है। अतः यह वांछनीय है कि सभी नागरिकों को मतदान में भाग लेना चाहिए।

चुनाव में धन का प्रयोग

चुनावों में धन का अत्यधिक प्रयोग होता है। निर्वाचन में बढ़ता खर्च एक बहुत बड़ी समस्या बन रही है। वैसे तो सभी चुनावों में खर्च की सीमा निर्धारित है परंतु, चुनाव में भाग लेने वाले अनेक प्रत्याशी बहुत अधिक खर्च करते हैं और धन और बल के प्रभाव से अपने मतदान को खरीदने की कोशिश करते हैं।

चुनाव में बाहुबल का प्रभाव

कई बार कुछ प्रत्याशी एन केन प्रकारेण किसी भी तरीके से चुनाव जीतना चाहते हैं। चुनाव में अपराधियों की मदद भी लेते हैं और बल का प्रयोग कर लोगों को डरा धमकाकर वोट लेने देने से रोकने, मतदान केंद्र पर कब्जा करने, जबरदस्ती अवैध तरीके से मत डलवाना आदि करवाते हैं, जो कतई सही नहीं है।

सरकारी साधनों का प्रयोग

उम्मीदवार निर्वाचन के समय आने से पहले जनता को लुभाने वाले वायदे करने लगते हैं और अधिकारियों को अपने हितों के अनुकूल स्थांतरित करते रहते हैं।शासकीय धन और वाहनों का तथा अन्य साधनों का प्रयोग करते हैं,जिससे चुनावों की निष्पक्षता प्रभावित होती है।

निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या

चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या कभी-कभी बहुत अधिक होती है। इसे चुनाव प्रबंधन में बहुत मुश्किलें आती हैं।मतदाता भी अधिक प्रत्याशियों के चुनाव मैदान में होने से भ्रमित हो जाते हैं।

मतदाताओं की भावना प्रभावित करना

चुनाव के समय कुछ प्रत्याशी धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा आदि के आधार पर मतदाताओं की भावनाओं को प्रभावित करते हैं। राजनीतिक दल भी जाति के आधार पर प्रत्याशी चयनित करते हैं। लोगों की भावनाओं को उभार कर चुनावों को प्रभावित करना लोकतंत्र के निर्वाचन का बहुत बड़ा दोष है।

फर्जी मतदान

कई बार दूसरे के नाम पर भी वोट डाले जाते हैं और एक से अधिक मतदाताओं की सूची में नाम लिखा जाता है। नाम न होते हुए भी वोट देने जाना, एक ही मतदाता का एक से ज्यादा जगह नाम होना आदि फर्जी मतदान है,जो चुनाव प्रणाली की बहुत बड़ी समस्या है।

साम्प्रदायिकता और कट्टर धार्मिकता

स्वतंत्रता के बाद सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरवाद की राजनीति ने देश के तमाम हिस्सों में आंदोलनों को जन्म दिया है। साथ ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, बहुलवाद और पंथनिरपेक्षता के संघीय ढांचे के लिए गंभीर खतरा पैदा कर दिया है।

उपसंहार

किसी भी लोकतांत्रिक देश में चुनाव और राजनीति एक दूसरे के पूरक कार्य करते हैं और लोकतंत्र के सुचारु कार्यान्वयन के लिए यह आवश्यक भी है लेकिन, इसके साथ ही हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि चुनावों के दौरान उत्पन्न होने वाली प्रतिद्वंदिता लोगों के बीच विवाद तथा दुश्मनी का कारण न बन जाए। इसके अतिरिक्त, हमें चुनावी प्रक्रिया को और भी पारदर्शी बनाने की आवश्यकता है ताकि अधिक से अधिक साफ-सुथरे तथा ईमानदार छवि के लोग राजनीति का हिस्सा बन सकें और लोकतंत्र में सही मायने में जनता राज करक्षसके और लाभान्वित हो।

©अर्चना अनुप्रिया।

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