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Writer's pictureArchana Anupriya

"लाल बहादुर शास्त्री के प्रेरक प्रसंग"


"अत्यंत ईमानदार, दृढ़ संकल्प, शुद्ध आचरण और महान परिश्रमी, ऊँचे आदर्शों में पूरी आस्था रखने वाले निरंतर सजग व्यक्तित्व का नाम ही है- लाल बहादुर शास्त्री"( पंडित जवाहरलाल नेहरू)

कद में छोटे किंतु विचारों,हौसलों और इरादों में बहुत बड़े, लाल बहादुर शास्त्री मानवता और जनता के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में खरे कंचन सिद्ध होते हैं। उत्तर प्रदेश के मुगलसराय के एक अत्यंत गरीब परिवार में जन्मे शास्त्री जी जब डेढ़ वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहावसान हो गया। ननिहाल में उनका लालन-पालन हुआ और आरंभिक शिक्षा उनकी वाराणसी में हुई। परंतु, अपने प्रेरक व्यक्तित्व से उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि एक अत्यंत गरीब परिवार में जन्मा हुआ बालक भी अपने परिश्रम व सद्गुणों द्वारा विश्व इतिहास में अमर हो सकता है।17 वर्ष की अल्पायु में ही गाँधीजी के स्कूलों और कालेजों का बहिष्कार करने की अपील पर वह पढ़ाई छोड़कर असहयोग आंदोलन में संलग्न हो गए थे। परिणामस्वरूप, जेल भेज दिए गए और जेल से रिहा होने के पश्चात उन्होंने काशी विद्यापीठ में पढ़ाई आरंभ की। विद्यापीठ में उनके आचार्य स्वर्गीय डॉक्टर भगवान दास, आचार्य नरेंद्र देव, बाबू संपूर्णानंद जी और श्री प्रकाश जी थे,जिनके सान्निध्य में शास्त्री जी ने प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण कर "शास्त्री" की उपाधि प्राप्त की थी। शास्त्री जी का समस्त जीवन देश सेवा में ही बीता। देश के स्वतंत्रता संग्राम और नए भारत के निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।शास्त्री जी को प्रधानमंत्रित्व के 18 माह की अल्पावधि में अनेक समस्याओं व चुनौतियों का सामना करना पड़ा, किंतु वे तनिक भी विचलित नहीं हुए और अपने शांत स्वभाव व अनुपम सूझबूझ से उनका समाधान ढूंढने में हमेशा कामयाब होते रहे। स्वर्गीय पुरुषोत्तम टंडन जी ने शास्त्री जी के बारे में ठीक ही कहा है,"उनमें कठिन समस्याओं का समाधान करने की, विवाद का हल खोजने तथा प्रतिरोधी दलों में परस्पर समझौता कराने की अद्भुत प्रतिभा विद्यमान थी।उनके आचार,विचार और कार्य क्षमता के ऐसे कई प्रसंग हैं, जो न केवल हमें प्रेरणा देते हैं, बल्कि हमें नयी दिशा दिखाते हैं।उनके ऐसे कुछ प्रेरक प्रसंग का वर्णन आज के युवा को नयी दृष्टि देने के लिए आवश्यक है--


1)देश में खाद्यान्न संकट उत्पन्न होने पर अमेरिका ने प्रति माह अनुदान देने की पेशकश पर शास्त्री जी तिलमिला उठे थे।एक संयत वाणी में उन्होंने देश का आह्वान करते हुए कहा था-"पेट पर रस्सी बाँधो, साग सब्जी ज्यादा खाओ, सप्ताह में एक शाम उपवास करो, हमें जीना है तो इज्जत से जियेंगे वरना भूखे मर जाएँगे... बेज्जती की रोटी से इज्जत की मौत अच्छी रहेगी…" शास्त्री जी को बचपन से ही गरीबी की मार की भयंकरता का बोध था।अतः उनकी स्वाभाविक सहानुभूति हमेशा अभावग्रस्त लोगों के साथ रही, जिन्हें जीवनयापन के लिए सतत संघर्ष में संघर्षशील रहना पड़ता था। वे सदैव इस प्रयास हेतु प्रयासरत रहे कि देश में कोई भी भूखा नंगा और अशिक्षित न रहे तथा सबको विकास के समान साधन मिलें। शास्त्री जी का विचार था कि देश की सुरक्षा, आत्मनिर्भरता तथा सुख-समृद्धि केवल सैनिकों व शस्त्रों पर ही आधारित नहीं है, बल्कि कृषक और श्रमिकों पर भी आधारित है। इसीलिए, उन्होंने नारा दिया था "जय जवान जय किसान"।


2)जब शास्त्रीजी इस देश के प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित कर रहे थे तो एक दिन वह एक कपड़े की मिल देखने के लिए गए। उनके साथ मिल का मालिक, उच्च अधिकारी व अन्य विशिष्ट लोग भी थे।

मिल देखने के बाद शास्त्रीजी मिल के गोदाम में पहुँचे तो उन्होंने साड़ियाँ दिखलाने को कहा। मिल मालिक व अधिकारियों ने एक से एक खूबसूरत साड़ियाँ उनके सामने फैला दीं। शास्त्रीजी ने साड़ियाँ देखकर कहा- "साड़ियाँ तो बहुत अच्छी हैं, क्या मूल्य है इनका?"

'जी, यह साड़ी 800 रुपए की है और यह वाली साड़ी 1 हजार रुपए की है।' मिल मालिक ने बताया।

'ये बहुत अधिक दाम की हैं। मुझे कम मूल्य की साड़ियाँ दिखलाइए,' शास्त्रीजी ने कहा।1965 में 1000 रूपये की कीमत आज की तुलना में बहुत अधिक थी।इसीलिए शास्त्री जी ने मँहगी कहकर उसे छोड़ दिया और दूसरी सस्ती साड़ी दिखाने को कहा।

'जी, यह देखिए। यह साड़ी 500 रुपए की है और यह 400 रुपए की' मिल मालिक ने दूसरी साड़ियाँ दिखलाते हुए कहा।

'अरे भाई, यह भी बहुत कीमती हैं। मुझ जैसे गरीब के लिए कम मूल्य की साड़ियाँ दिखलाइए, जिन्हें मैं खरीद सकूँ।' शास्त्रीजी बोले।

'वाह सरकार, आप तो हमारे प्रधानमंत्री हैं, गरीब कैसे? हम तो आपको ये साड़ियाँ भेंट कर रहे हैं।' मिल मालिक कहने लगा।

'नहीं भाई, मैं भेंट में नहीं लूँगा', शास्त्रीजी स्पष्ट बोले।

'क्यों साहब? हमें यह अधिकार है कि हम अपने प्रधानमंत्री को भेंट दें', मिल मालिक अधिकार जताता हुआ कहने लगा।

"हाँ, मैं प्रधानमंत्री हूँ', शास्त्रीजी ने बड़ी शांति से जवाब दिया- 'पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि जो चीजें मैं खरीद नहीं सकता, वह भेंट में लेकर अपनी पत्नी को पहनाऊँ। भाई, मैं प्रधानमंत्री हूँ पर हूँ तो गरीब ही। आप मुझे सस्ते दाम की साड़ियां ही दिखलाएँ। मैं तो अपनी हैसियत की साड़ियाँ ही खरीदना चाहता हूँ।"

मिल मालिक की सारी अनुनय-विनय बेकार गई। देश के प्रधानमंत्री ने कम मूल्य की साड़ियाँ ही दाम देकर अपने परिवार के लिए खरीदीं। ऐसे महान थे शास्त्रीजी, लालच जिन्हें छू तक नहीं सका था।


2) शास्त्री जी को स्वयं कष्ट उठाकर दूसरों को सुखी करने में बहुत आनंद मिलता था। एक बार की घटना है जब शास्त्री जी रेल मंत्री थे और मुंबई जा रहे थे। उनके लिए प्रथम श्रेणी का डब्बा लगा था। गाड़ी चलने पर शास्त्री जी बोले,"डिब्बे में काफी ठंडक है, वैसे बाहर गर्मी है"?

उनके पीए कैलाश बाबू ने कहा, "जी,इसमें कूलर लगा दिया गया है।" शास्त्री जी ने एक नजर उन्हें देखा और आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा," कूलर लग गया है? बिना मुझे बताए?..आप लोग कोई काम करने से पहले मुझसे पूछते क्यों नहीं? क्या और सारे लोग जो गाड़ी में चल रहे हैं, उन्हें गर्मी नहीं लगती होगी?" शास्त्री जी ने कहा," कायदा तो यह है कि मुझे भी थर्ड क्लास में चलना चाहिए, लेकिन उतना तो नहीं हो सकता पर जितना हो सकता है, उतना तो करना चाहिए ।"उन्होंने आगे कहा,"बड़ा गलत काम हुआ है, गाड़ी आगे जहाँ भी रुके, पहले कूलर निकलवाइए..।" मथुरा स्टेशन पर गाड़ी रुकी और कूलर निकलवाने के बाद ही गाड़ी आगे बढ़ी। आज भी फर्स्ट क्लास के उस डिब्बे में जहाँ कूलर लगा था, वहाँ पर लकड़ी जड़ी है, जो शास्त्री जी के इस प्रेरक प्रसंग की याद दिलाती है।


3) शास्त्री जी के अंदर स्वाभिमान का भाव कूट-कूट कर भरा था।उनके अंदर यह संस्कार बचपन से ही था। जब वह छोटे थे तो अपने दोस्तों के साथ गंगा नदी के पार मेला देखने गए। शाम को लौटते समय जब सभी दोस्त नदी किनारे पहुँचे तो शास्त्री जी ने किराए के लिए जेब में हाथ डाला। परन्तु, जेब में एक भी पाई नहीं थी।छोटे शास्त्री जी वहीं रुक गए। उन्होंने अपने दोस्तों से कहा कि वह थोड़ी देर और मेला देखना चाहते हैं,इसीलिए आप लोग जाए मैं बाद में आ जाऊँगा। दरअसल,बालक शास्त्री जी नहीं चाहते थे कि उसे अपने दोस्तों से नाव का किराया लेना पड़े। छोटे शास्त्री का स्वाभिमान उसे इसकी अनुमति नहीं दे रहा था उसके दोस्त नाव में बैठकर नदी पार कर चले गए। जब उसकी नाव आँखों से ओझल हो गई तब बालक शास्त्री जी ने अपने कपड़े उतारे, उन्हें सर पर लपेट लिया और नदी में उतर गए। उस समय नदी उफान पर थी। बड़े से बड़ा तैराक भी आधे मील चौड़े पाट को पार करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। पास खड़े मल्लाहों ने भी शास्त्री जी को रोकने की कोशिश की पर उस बालक शास्त्री ने किसी की नहीं सुनी और बिना खतरे की परवाह किए नदी में तैरने लगा। पानी का बहाव तेज था और नदी भी काफी गहरी थी। रास्ते में एक नाव वाले ने उसे अपने नाव में सवार होने के लिए कहा भी, लेकिन वह रुके नहीं और तैरते चले गए और कुछ देर बाद दूसरी ओर सकुशल पहुँच गए। शास्त्री जी ने बचपन से ही अपने स्वाभिमान और अपनी मेहनत को अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बना लिया था, जो आज के बालकों के लिए बहुत ही प्रेरक उदाहरण साबित होता है।


4) लाल बहादुर शास्त्री के व्यक्तित्व में मानवता,कर्तव्य और मानव के प्रति। जबरदस्त सम्मान था।प्रसंग छोटा हो या बड़ा- उनका व्यवहार मानवता और कर्तव्य का बहुत बड़ा पाठ पढ़ा जाता है। बात तब की है जब शास्त्री जी केंद्रीय गृहमंत्री थे उनके निवास स्थान का एक दरवाजा जनपथ की ओर था और दूसरा अकबर मार्ग की ओर था। एक बार दो स्त्रियाँ सिर पर घास का गट्ठर रखकर उस मार्ग से निकलीं तो चौकीदार ने उन्हें धमकाना शुरू किया। उस समय शास्त्री जी अपने बरामदे में बैठे कुछ शासकीय कार्य कर रहे थे।उन्होंने सुना तो बाहर आ गए और पूछने लगे, "क्या बात है?"चौकीदार ने सारी बातें बता दीं। शास्त्री जी ने कहा, "क्या तुम देख नहीं रहे हो कि उनके सिर पर कितना बोझ है?यदि यह निकट के मार्ग से जाना चाहती हैं तो तुम्हें क्या आपत्ति है? जाने क्यों नहीं देते? जहाँ सहृदयता हो, दूसरों के प्रति सम्मान भाव हो, वहाँ सारी औपचारिकताएँ एक तरफ रख कर वही करना चाहिए जो कर्तव्य की परिधि में आता है।"

यह बात छोटी है, परंतु बहुत ही प्रेरणादायक है क्योंकि यह छोटा सा प्रसंग लाल बहादुर शास्त्री जी की सहृदयता, मानवता और कर्तव्यों के प्रति उनकी आस्था को दर्शाता है।

5) लाल बहादुर शास्त्री जी का व्यक्तित्व दिखावे और बाह्य आडंबर से बहुत दूर था।प्रधानमंत्री शास्त्री जी एक बार किसी अधिवेशन में शामिल होने भुवनेश्वर गए। अधिवेशन से पहले जब शास्त्री जी स्नान कर रहे थे, तब उनके पीए ने इस भावना से कि शास्त्री जी का अधिक समय कपड़े पहनने में व्यर्थ न जाए, सूटकेस से उनकी खादी का कुर्ता निकाला।ज्योंहि उन्होंने कुर्ता निकाला तो देखा, कुर्ता फटा हुआ था ।उन्होंने वह कुर्ता ज्यों का त्यों तह करके वापस रख दिया और उसके स्थान पर दूसरा कुर्ता निकालने लगे। परंतु,उन्हें यह देखकर और भी ज्यादा अचंभा हुआ कि दूसरा कुर्ता पहले की अपेक्षा अधिक फटा था और जगह-जगह से सिला हुआ भी था। उन्होंने सूटकेस के सारे कुर्ते निकाले तो देखा कि एक भी कुर्ता ढ़ंग का नहीं था। यह देखकर वह परेशान हो उठे। तभी शास्त्री जी स्नान करके वहाँ आ गए।दयाल जी ने जब अपनी परेशानी बतायी तो शास्त्री जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "इसमें चिंता की कोई बात नहीं,थोड़े फटे और सिले कुर्ते कोर्ट के नीचे पहने जा सकते हैं, इसमें कैसी परेशानी और क्या शर्म..?" शास्त्री जी की यह सादगी और दिखावे से परे का व्यक्तित्व हर व्यक्ति के लिए बहुत प्रेरक प्रसंग माना जाएगा।


6) शास्त्री जी नियमों की अवहेलना करना उचित नहीं मानते थे।उनका मानना था कि ऊँचे से ऊँचे पद पर बैठे व्यक्ति को भी नियमों का कड़ाई से पालन करना चाहिए। एक बार उन्हें बनारस जाना था। लेकिन, लाख कोशिशों के बाद भी वे समय पर रेलवे स्टेशन नहीं पहुँच सके।ट्रेन के जाने का सिग्नल हो चुका था,लेकिन जैसे ही गार्ड को पता चला कि मंत्री महोदय स्टेशन पहुँचने वाले हैं, उसने हरी झंडी नीची कर दी और शास्त्री जी का इंतजार करने लगा। उधर सभी यात्री परेशान थे कि सिग्नल होने के बावजूद ट्रेन चल क्यों नहीं रही है? थोड़ी देर में शास्त्री जी स्टेशन पहुँच गए और अपने कोच की ओर बढ़ने लगे। उन्हें देखकर वह गार्ड भागा-भागा उनके पास पहुँचा और बोला, "सर, जैसे ही मैंने सुना कि आप आ रहे हैं,मैंने ट्रेन चलने नहीं दी।" यह सुनकर शास्त्री जी ने गार्ड की तरफ दृष्टि घुमायी और फिर बिना कुछ कहे ट्रेन पर चढ़ गए।गार्ड बहुत खुश हो रहा था। उसे लगा कि मंत्रीजी उसके कार्य से खुश हो रहे हैं और अब उसकी तरक्की निश्चित है। लेकिन, अगले ही दिन उसे ड्यूटी ठीक से न करने के आरोप में पदमुक्त कर दिया गया।एक रेल मंत्री के रूप में इतने बड़े ओहदे पर होकर भी शास्त्री जी का रहन-सहन इतना साधारण था। वह अपने नियमों का सख्ती से पालन करते थे और दूसरों से भी यही अपेक्षा करते थे। उनकी यह बात बहुत ही प्रेरणादायी है और हमें यह शिक्षा देती है कि अपने कर्तव्यों के प्रति हमें सदैव ही ईमानदार रहना चाहिए।


उनके ऐसे ही न जाने कितने प्रेरक प्रसंग हैं, जो न केवल इन्सानियत और मानवता का पाठ पढ़ाते हैं, बल्कि यह भी बताते हैं कि जनता के एक प्रतिनिधि का स्वरूप कैसा होना चाहिए।विराट हृदय वाले शास्त्री जी अपने देश के लोगों के विकास और वतन की शांति की स्थापना के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहे। उन्हें कभी भी किसी पद या सम्मान की लालसा नहीं रही। उनके राजनीतिक जीवन में अनेक ऐसे अवसर आए,जब शास्त्री जी ने इस बात का सबूत दिया कि देश और मानव सेवा ही उनका उद्देश्य है और इस तरह लोगों के समक्ष कई प्रेरणादायी उदाहरण रखे। उनके विषय में यह कहा जाता है कि वह अपना त्यागपत्र सदैव अपनी जेब में रखते थे। ऐसे निःस्पृह व्यक्तित्व के धनी,शास्त्री जी भारत माता के सच्चे सपूत थे।

भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री के रूप में लालबहादुर शास्त्री सादगी व महानता की प्रतिमूर्ति थे।हम सभी को उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा लेनी चाहिए।



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