“विवाह संस्कार का बदलता स्वरूप”
अभी हाल ही में किसी फंक्शन में मेरे बचपन की एक सहेली मिल गई। बरसों बाद हम मिले थे लिहाजा, बड़ी ही गर्मजोशी से मिल रहे थे। ढेर सारी बचपन की यादें,मासूमियत के पल, बदमाशियाँ– सब याद करते-करते अचानक जैसे उसे कुछ याद आया–”अरे, मैं तो भूल ही गई थी बताना.. अगले वीक में मेरे बेटे की शादी है.. गोवा में रखी है..डेस्टिनेशन वेडिंग है, तुम्हें आना ही है। मैं घर पहुंचते ही ई-कार्ड भेज दूंगी। कोई बहाना मत बनाना.. आना ही होगा,समझी” और फिर वह मोबाइल की तस्वीरें खोलकर अपने बेटे-बहू की प्रीवेडिंग फोटोशूट दिखाने लगी।दोनों बच्चों की बड़ी ही रुमानी तस्वीरें थीं।.. कुछ ऐसी कि उम्र के इस पड़ाव पर भी मुझे उन्हें देखते हुए थोड़ी झेंप सी महसूस हो रही थी। मैंने पूछा-”इंगेजमेंट कब हुई..?” वह कहने लगी–”अभी कहां हुई है..? वह एक साथ ही गोवा में होगी..” “तो फिर यह फोटो..” मैंने जरा झेंपते हुए पूछा। “अरे यह तो प्री वेडिंग शूट है.. आजकल तो यह फैशन में है, मेरे समधीजी ने बड़ा महंगा फोटोग्राफर हायर किया है.. यह सब उसी का कमाल है.. गोवा आओ न, मजा आ जाएगा.. मैं अपनी इवेंट मैनेजर को तुम्हारा नंबर दे दूंगी। वह तुम्हें सब सूचित कर देगा.. एक ही दिन की तो बात है, बहाना मत करना.. सारे फंक्शन एक ही दिन में हो जाएंगे.. अगले दिन तो बच्चों के हनीमून का टिकट है, मालदीव के लिए..तुम तो अगले दिन ही वापस लौट सकती हो। देखो, समधी जी ने महंगे होटल बुक किए हैं हम सबके लिए.. उनका पैसा जाया मत कर देना..” हंसती हुई वह कहने लगी, “दुलारी बेटी है भाई, दो-तीन करोड़ रुपए खर्च कर रहे हैं, शादी पर.. भई, हम तो धन्य हो गए.. शानदार स्वागत होने वाला है..।”
मिल-मिलाकर, आने की हामी भरकर मैं वहां से विदा तो हो गई परंतु, घर आते-आते रास्ते भर मैं यह सोचती रही कि यह पवित्र बंधन कैसे भिन्न-भिन्न किस्म के बाजार में ढल सा गया है। विवाह मानो व्यक्तियों और परिवारों का बंधन न होकर बाजार का व्यापार सा हो गया है। वेन्यू की सजावट, दूल्हा-दुल्हन का मेकअप, दुल्हन की एंट्री, कैटरिंग, हल्दी, संगीत– हर व्यवहार पैकेजों में बिक रहे हैं। नाम तो है कि लड़का- लड़की के माता-पिता फ्री होकर शादी का मजा ले पाते हैं परंतु, जिस तरह से चीजों और व्यवहारों की पैकेजिंग हो रही है, हृदय और संस्कार तो जैसे वहां से गायब ही हो चुके हैं। रह गए हैं बस, समय की पाबंदी, अच्छे से बेहतर बताने का दिखावा,गीत-संगीत के नाम पर कोरियोग्राफी और फोटोग्राफी की खरीद-बिक्री और वैवाहिक विधि-व्यवहार के नाम पर अजीबोगरीब हरकतें। हद तो यह है कि पंडितों ने भी समय और क्लाइंट के हिसाब से विवाह के समय और पैसे बाँध रखे हैं।एक घंटे की शादी, दो घंटे की शादी, आधे घंटे की शादी,पैंतालीस मिनट की शादी वगैरह वगैरह। जैसा विवाह के वेन्यू का टाइमिंग फिक्स हो, उसी हिसाब से विवाह करने का समय और मूल्य भी फिक्स कर दिया जा रहा है क्योंकि एक ही दिन में एक ही वेन्यू पर कई-कई शादियां होती हैं। सब कुछ तत्परता से होना चाहिए ताकि दूसरों को भी समय दिया जा सके। कितना परिवर्तित हो गया है सब कुछ। समय के हिसाब से परिवर्तन उचित है परंतु, अपनी बहूमूल्य संस्कारों को ऐसे हल्के में लेकर मजाक बनाना कैसा परिवर्तन है? फेमिनिज्म भी कुछ लोगों के लिए ऐसे परिभाषित होने लग गया है कि लड़कियाँ विवाह के कई तरह के व्यवहारों का गलत अर्थ लगाकर खुद को अपमानित मानने लगती हैं। लिहाजा,कई जरूरी व्यवहार बेमानी बताकर वे उसे करने के लिए तैयार ही नहीं होतीं। परिणामस्वरुप,बहुत से व्यवहार लुप्त होते जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त, विवाह की आयु, उद्देश्य, प्रकार, विधि विधान, रीति रिवाज, पति-पत्नी के अधिकार संस्कारात्मक व्यवहार आदि आधुनिक परिवेश की बदलती संस्कृति एवं बदलते प्रतिमान के कारण बदल गए हैं। अब अधिकतर विवाह एक संस्कार न होकर मात्र नृत्य-संगीत के कार्यक्रम और मजाक का स्वरूप होने लग गये हैं। पाश्चात्य सभ्यता, टीवी सीरियल्स एवं फिल्मों के अंधानुकरण ने पाणिग्रहण जैसे महत्वपूर्ण संस्कार का मजाक सा बना दिया है। फलस्वरूप,टूटते परिवार एवं विवाह-विच्छेद के बढ़ते प्रकरण बहुतायत रूप में सामने आने लगे हैं और विडम्बना यह है कि इसके पीड़ित ही इसके अपराधी भी हैं। दोनों परिवार मजा तो ले लेते हैं परंतु, मन-व्यवहार से पूरी तरह से जुड़ नहीं पाते।फलस्वरूप, एक दूसरे पर विश्वास नहीं बनता और आपसी मतभेद आसानी से आकार ले लेता है।
सनातन संस्कृति में दूल्हा-दुल्हन को राम और सीता का स्वरूप मानने की परंपरा है। दुल्हन देवी स्वरूपा लक्ष्मी है और दूल्हा विष्णु अवतार माना जाता है। इस मान्यता को तो हम जैसे भूलते ही जा रहे हैं। पाणिग्रहण संस्कार हमारे सोलह संस्कारों में सबसे प्रमुख संस्कार है तथा सृष्टि और समाज के विस्तार का आधार है।यह एक सुव्यवस्थित सामाजिक तंत्र का स्तंभ है।इसकी गिरती प्रकृति और इसके अंतर्गत बढ़ते दिखावे को दरकिनार करना बहुत जरूरी है। पाश्चात्य संस्कृति की तरह भारतीय पाणिग्रहण संस्कार कोई सामाजिक अनुबंध मात्रा नहीं है,यह एक आध्यात्मिक साधना भी है, जिसमें वर और वधू सामाजिक और सृष्टि रचना का उत्तरदायित्व लेते हैं और सात जन्मों तक इस बंधन को निभाने का अग्नि को साक्षी मानकर संकल्प करते हैं।
पहले के जमाने में विवाह के हर विधि-विधान को विस्तार से किया जाता था। अब समय के अभाव और वर-वधू की नौकरियों तथा उनकी व्यस्त दिनचर्या को देखते हुए हर विधान को लघु कर दिया गया है। पहले के समय में विवाह तय होने पर पत्रिका छपवाने की प्रथा थी,जिसमें घर के बड़े-बुजुर्गों तथा परिवार के समस्त सदस्यों के नाम छपवाये जाते थे।यह एक संपूर्ण परिवार की अखंडता ही नहीं दर्शाता था बल्कि सबको एकजुटता का अहसास भी देता था। परिवार के सदस्य उन विवाह निमंत्रण-पत्रिकाओं को अपने रिश्तेदारों,दोस्तों और जानकारों में घर-घर जाकर व्यक्तिगत रूप से निमंत्रण दिया करते थे। अब निमंत्रण पत्रों का स्थान ई-निमंत्रण वीडियो और पीडीएफ ने ले लिया है। विवाह के निमंत्रण पत्र भी डिजिटल हो गए हैं, जो ग्रुप में या व्यक्तिगत तौर पर मोबाइल से ही प्रेषित कर दिए जाते हैं। पहले जब निमंत्रण पत्र लेकर रिश्तेदार या माता- पिता किसी के घर जाते थे तो उनके व्यक्तिगत आग्रह में एक विशेष अपनापन और खिंचाव होता था, जो डिजिटल निमंत्रण में महसूस ही नहीं होता। पत्रिका की खुशबू घर के हर सदस्य के हाथों से गुजरती थी और उनके हृदय को छूकर अपनत्व बरसाती थी।डिजिटल निमंत्रण वर-वधू की तस्वीरों या एनिमेशन के जरिये वर-वधू के प्रेम तो दर्शाती है परंतु एकल परिवार की मजबूरी भी दिखाती है।पहले, शादी वाले घर में सप्ताह भर पूर्व से ही रिश्तेदारों और मित्रों का आना आरंभ हो जाता था। हंसी-ठिठोली घर के हर कोने को झंकृत कर देती थी। जिनका विवाह होता था,वे लड़का-लड़की पीले वस्त्रों में देखे जाने लगते थे। सुबह-संध्या घर-परिवार के लोग इकट्ठे होकर उन्हें हल्दी का उबटन लगाते थे, विवाह के मधुर गीत गाते थे और आपस में हंसी-ठिठोली करते थे। संबंधों की प्रगाढ़ता को और भी बल मिलता था। कोई बाहर का काम देख रहा है तो, कोई घर में हलवाई के लिए सारे इंतजाम में लगा है। घर की स्त्रियाँ गीत गातीं कभी नदी किनारे विधि व्यवहार के लिए जा रही होती थीं तो कभी वृक्षों की झुरमुट के बीच मटकोर करती और आम के वृक्ष या बाँस की झुरमुटों के बीच विधियाँ निभातीं नजर आ रही होती थीं। लड़की वाले लड़के वालों के घर जाकर लड़के को तिलक लगाकर विष्णु- स्वरूप बनाते थे और लड़के वाले लड़की वालों के घर जाकर लड़की को शगुन देकर लक्ष्मी-स्वरूप में श्रृंगार अर्पित करते थे। बारात का आना भी अपनेआप में एक उत्सव सरीखा होता था।बारातघर में,जिसे ‘जनमासा’ कहा जाता था,बारात का रुकना, नाश्ता, शरबत, नाच-गान एक अलग ही रौनक लगाता था।पहले बारात में लड़के के साथ नाई और धोबी भी जाया करते थे।वे भी बारातियों का अहम् हिस्सा होते थे।समय के साथ ये सब बदल गया। उधर, बारात विदाई के बाद लड़के वालों के घर में स्त्रियाँ रतजगा करती थीं। नाचने-गाने का कार्यक्रम होता था और आपस में ही खूब मजे करती थीं।स्त्रियों में से ही कोई लड़के का अभिनय करती थीं तो कोई घर के बड़े-बुजुर्गों की नकल करके हँसी और मस्ती का माहौल बनाती थीं।स्त्रियों के इस कार्यक्रम को ‘डोमकच’ कहते थे। लड़के वाले जब बारात लेकर नाचते-गाते लड़की वालों के घर आते थे तब, लड़की के घर वाले गले मिलकर, फूल माला पहनाकर समस्त बारातियों का स्वागत करते थे। समस्त लड़की पक्ष वाले बाहर द्वार पर स्वागत के लिए खड़े रहते थे,लड़के वालों संग एक दूसरे को गले लगाते थे और आपस में एक दूसरे से मिलते थे। पूरी बारात को आदर के साथ बिठाकर खाना खिलाया जाता था।ऐसे अवसरों पर गाये जाने वाले मधुर लोकगीत, मधुर तानों भरी गालियाँ और स्त्रियों के उलाहने भरे गान एक अलग ही रौनक से भर देते थे।अब ऐसे लोकगीतों का स्थान फिल्मी और डिस्को संगीत ने ले लिया है।वरमाला में भी लकड़ी की शर्म-हया उसकी झुकी आंखों से उसके दुल्हन होने का संस्कार देती थी। आज कई दुल्हनें अर्धनग्न कपड़ों में वरमाला के समय अजीबोगरीब सी हरकतें करती दिखती हैं, जो कई बार इस व्यवहार का बहुत भोंड़ा प्रदर्शन लगता है। अक्सर सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो देखे जाते रहते हैं। विवाह की वेदी पर भी हर तरह की पूजा, सप्तपदी व्यवहार और अग्नि का साक्ष्य वर-वधू के संबंधों को सात जन्मों के अटूट बंधन में बांधता था।आजकल हर व्यवहार जल्दी में होता है.. नतीजतन, विवाह के पश्चात् दूल्हा दुल्हन का आपसे जुड़ाव भी आध्यात्मिक या सांस्कारिक नहीं हो पाता।तभी तो सात जन्मों के कहे जाने वाले बंधन भी जल्दी ही टूटने लग जाते हैं। पूजा और संस्कारों से ज्यादा सबका ध्यान तस्वीर खिंचवाने और हनीमून पर जाने की तैयारी में रहता है।विवाहोपरांत विदाई की रस्म भी एक अलग ही संवेदनशील वातावरण का निर्माण करती थी।माता पिता अपनी पुत्री को जरूरी संस्कार देते थे,कलेजे के टुकड़े को सीने से लगाकर उसके सुखी संसार की प्रार्थना करते थे।बेटी भी विदाई की घड़ी में माता पिता के संस्कारों को निभाने और दो परिवारों को जोड़कर रखने का दायित्व लेती थी।वर अपने दायित्व उठाने और पत्नी संग दोनों परिवारों की देखभाल का जिम्मा लेता था।कई जगहों पर लड़के और बारात को विदाई से पहले दो दिन,पाँच दिन या ग्यारह दिनों तक रोकने की भी प्रथा थी,जिसे मर्याद रखना कहा जाता था।विवाह के दूसरे दिन दोनों तरफ के रिश्तेदार एक साथ बैठकर घर का सादा भोजन खाते थे।लड़की की विदाई के समय खोंयचा देने का भी रिवाज था।खोंयचा इस बात का द्योतक था कि ससुराल जाते समय आँचल में आशीर्वाद भर कर ले जाये।खोंयचे के रूप में आँचल में पीला चावल,दूब,हल्दी की गाँठ और कुछ पैसे दिये जाते थे।खोंयचा देने के बाद उसके कुछ चावल बेटी की माँ अपने पास रख लेती थीं।इस खोंयचे का मतलब यह था कि बेटी जहाँ जाये समृद्धि, स्वास्थ्य और धनधान्य से परिपूर्ण होकर जाये।हाँ,मायका बिल्कुल रिक्त न हो जाये, इसीलिए थोड़ा चावल वापस रख लिया जाता था।यह व्यवहार ही बताता है कि बेटी हमारी संस्कृति में लक्ष्मी का प्रतिरूप है।पगफेरे के लिए तिथि और शगुन देखकर भाई जाकर ससुराल से बहन को लेकर आता था।तब ससुराल से भी बहू की बहुत शानदार विदाई की जाती थी।लड़की के मायके के सभी सदस्यों के लिए कपड़े,फल,मिठाइयाँ, तोहफे वगैरह लड़के वालों की तरफ से देकर बहू को मायके भेजा जाता था।ये सारे खूबसूरत और महत्वपूर्ण व्यवहार तो अब लगभग समाप्त से हो रहे हैं।रुँधे गले से विदाई के गीत और पुनः बेटी के मायके आने पर उत्सव का वातावरण एक सकारात्मक संवेदना से भर देता था।अब लड़कियाँ फेमीनिज्म के सिद्धांत को उद्धरित करती हुई इसे बेकार का आडम्बर करार देती हैं।फलस्वरूप, इस व्यवहार की खूबसूरती और संवेदनशीलता अब बहुत कम ही नजर आती है। इसके अतिरिक्त, विवाह के बाजारीकरण में एक ही स्थान की बुकिंग कई-कई शादियों के लिए की गयी होती है, जिसकी वजह से जल्दी-जल्दी विवाह निपटाने की प्रक्रिया वर-वधू के अभिभावकों के लिए कई बार मजबूरी भी बन जाती है।कुल मिलाकर देखें,तो विवाह को बाजार ने पूरी तरह से अपने लपेटे में ले लिया है। पाणिग्रहण संस्कार की सादगी और उसकी अध्यात्मिकता की सोंधी खुशबू कहीं खो सी गयी है और यह संस्कार एक नयी पैकेजिंग में अंदर ही अंदर खोखला हो रहा है। हमारी विवाह पद्धति दो व्यक्तियों का ही नहीं दो परिवारों का मिलन है, जिसका उद्देश्य एक स्वस्थ समाज का निर्माण है। इसलिए, बहुत जरूरी है कि इससे संबंधित जरूरी व्यवहारों को गंभीरता से लिया जाए और शांत मन से पूरे समर्पण के साथ खुश- खुशहाल वातावरण में व्यावहारिक वैवाहिक रीतियों का निर्वहन हो ताकि, संबंध प्रगाढ़ बनें, आपसी वैचारिक सामंजस्य रहे और विवाह संबंधी उत्तरदायित्वों का निर्वहन सही ढंग से सात जन्मों के बंधन का निर्माण करे।
अर्चना अनुप्रिया।
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