"शारदा"
सारे काम निपटा कर मैं चाय का प्याला लेकर बैठी ही थी कि फोन की घंटी बजी।सरिता का फोन था.."सुमि,मैंने शारदा से तेरे घर के काम के लिए बात कर ली है..एक बार आकर मिल सकोगी?आकर एक बार आमने-सामने बात कर लेती तो…"
"शारदा"--एक नाम,जो न जाने कौन सा तार छेड़ गया मन का कि थोड़ी देर के लिए एक चेहरा आँखों में क्षण भर के लिए उभरा और लुप्त हो गया।
"हाँ हाँ..ठीक है,आना होगा तो फोन कर दूँगी"-- मैंने जल्दी से कहकर फोन रख दिया क्योंकि माँ जी आवाज दे रही थीं-- "बहू, जरा पानी ले आना, दवाई खानी है।" "अभी लाती हूँ", मैंने भी पुकार कर कहा और फोन रखकर जल्दी-जल्दी चाय खत्म करने लगी। माँ जी भी न, कितनी बार कहा है कि जग में पानी भर कर कमरे में रख लिया करें पर उन्हें लगता है कि देर तक रखा पानी स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं होता, इसलिए जब भी पानी पीना होता है तो मुझे ही आवाज लगाती हैं। चाय खत्म करके प्याला मैंने किचन में रखा, जग और ग्लास में आर.ओ. फिल्टर से पानी भरा और माँ के कमरे की तरफ चल पड़ी।जब से मेरी कामवाली छुट्टी पर गयी है, मेरी तो शामत आ गई है। सुबह से उठकर बच्चों को तैयार करो, टिफिन बनाओ, बस स्टॉप पर बच्चों को छोड़ने जाओ, वापस आकर रात के जूठे बर्तन धो, झाड़ू-पोछा, सुदेश के लिए नाश्ता, माँ जी और पिताजी के लिए उनकी पसंद की चीजें, फिर दवा वगैरह देकर दोपहर के खाने की तैयारी …
उफ्फ्फss...इसी चक्कर में मुझे अपनी नौकरी भी छोड़नी पड़ी थी।अब घर देखूँ कि अपना काम..?मँहगाई के मारे नौकरी की तो जरूर, परन्तु, बार-बार छुट्टी लेना भी तो संभव नहीं हो पा रहा था।सुपर वुमन बनने के चक्कर में बच्चों और सास-श्वसुर पर ठीक से ध्यान न दे पाना बहुत खलता था मुझे। काम वाली थी तो काफी सहारा हो जाता था, पर उसके भी कम नखरे नहीं थे... हर दूसरे दिन बिना बताए गायब हो जाती थी। गुस्सा तो बहुत आता था पर मैं क्या कर सकती थी, मजबूरी थी, कोई और काम वाली हमारे मोहल्ले की तरफ आना ही नहीं चाहती थी क्योंकि सारे घर पुराने और बड़े- बड़े हैं। आजकल फ्लैटों के छोटे-छोटे कमरों में सबको काम करने की आदत हो गई है। उसी के इतने पैसे मिल जाते हैं कि बड़े घरों की मुसीबत कोई क्यों मोल ले? फिर, एक ही अपार्टमेंट के कई फ्लैटों में ऊपर-नीचे काम मिल जाता है फिर उन्हें यहाँ-वहाँ जाने की जरूरत ही क्या है?
इसीलिए तो मेरी कामवाली भी इतने नखरे दिखाती है या यूँ कहें कि वह मेरी मजबूरी का खूब फायदा उठाती है। मैंने मन ही मन सोचा कि आज सारे काम निपटा कर सरिता के घर जाऊँगी। उसने कुछ दिनों पहले ही मुझसे कहा था कि उसने अभी-अभी एक कामवाली रखी है,जो काम के मामले में बड़ी ही सिनसीयर है... बिना बताए कभी गायब नहीं होती और हर काम बड़े ही सलीके और साफ-सुथरे तरीके से करती है। सरिता ने उससे मेरे काम के लिए बात भी की थी और वह लगभग तैयार थी।इसीलिए मैंने सोचा कि एक बार जाकर पहले उससे मिल लूँ,पैसे वैसे की बात कर लूँ, फिर, अगले दिन से उसे बुला लूँगी।सारे काम निपटाते-निपटाते दोपहर के तीन बज गए। मैंने सरिता को फोन करके बता दिया था कि मैं आ रही हूंँ, ऐसा न हो वह कहीं बाहर निकल जाए। जल्दी से काम निपटा कर,तैयार होकर मैं सरिता के घर जाने के लिए निकल पड़ी।
कॉलबेल बजाते ही सरिता ने दरवाजा खोला।वह मेरा ही इंतजार कर रही थी।"आओ सुमि,मैं बस तेरी ही राह देख रही थी", सरिता ने दरवाजा बंद करते हुए कहा। मैं भी अंदर आकर डायनिंग चेयर पर बैठ गयी। आमतौर पर आजकल के छोटे फ्लैटों में डायनिंग टेबल घर के मध्य स्थान में ही होता है जहाँ पर बैठकर चाय पीते-पीते या दूसरे काम करते-करते सारे घर पर नजर रखी जा सकती है और बैठकर बातें भी की जा सकती हैं। सरिता भी चाय का पानी चढ़ा कर वहाँ आकर बैठ गयी--"और कहो, क्या हालचाल है? आंटी अंकल ठीक है न? सुदेश कैसा है?बच्चों का क्या समाचार है?" सरिता ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
"हाँ बाबा, सब ठीक है,मेरी ही हालत पतली हुई जा रही है"- मैंने जल्दी से जवाब दिया और सीधा मुद्दे पर आ गयी। दूसरी बातों में मैं समय नहीं गंवाना चाहती थी, पता नहीं कब घर से फोन आ जाए और मुझे वापस जाना पड़े।
"सरिता तूने कामवाली के लिए"….अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि एक नन्हें बच्चे की रोने की आवाज सुनकर मैं चौंक गयी और प्रश्न भरी नजरों से इधर-उधर देखने लगी।
सरिता मेरा चेहरा देखकर मेरी उलझन समझ गई,इसलिए पुकार कर कहा-" शारदा, तेरी बेबी जाग गई है शायद, आकर उसे देख ले,बरतन बाद में धो लेना", फिर मेरी तरफ देख कर कहा- "मेरी काम वाली है न, शारदा नाम है उसका... जिसके बारे में तुझे बताया था, उसी की बेटी है...सात-आठ महीने की है,उसे अकेली नहीं छोड़ सकती,इसीलिए साथ लेकर आती है।"
बच्ची ने अब तक रोना बंद कर दिया था, शारदा शायद उसे दूध पिला रही थी।
"शारदा बच्चे को सुला कर जरा पास तो आना, एक नयी मेम साहब से तुम्हें मिलवा दूँ"-- सरिता ने पुकार कर कहा।
" जी अभी आती हूंँ",एक पतली, मुरझाई सी आवाज सुनाई दी।आवाज कुछ जानी पहचानी सी लगी पर मैंने ध्यान नहीं दिया। सोचा, ज्यादातर लड़कियों की आवाजें तो एक जैसी ही होती है, होगी कोई।
हम दोनों इधर-उधर की बातें करने लगे। तभी,ट्रे में चाय लिए शारदा वहाँ आ पहुंची। उसे देख कर मैं एकदम चौंक गयी--"अरेss...शारदा...तुमssम।"
शारदा भी मुझे देख देख कर चौंक गई-"दीदी आप..यहाँ ?"
थोड़ी देर तो मेरी आँखों पर मुझे विश्वास नहीं हुआ- "यह मेरी आँखें क्या देख रही हैं?क्या यह वही शारदा है, जिसने मैट्रिक की परीक्षा, इंटरमीडिएट की परीक्षा और बी.ए. की परीक्षा- तीनों में प्रथम श्रेणी से पास किया है और हमेशा स्कूल और कॉलेज में अव्वल आती रही है? पर वह यहाँ.. काम वाली…? ऐसे कैसे..? मुझे मेरी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।बहुत कुछ मेरी आँखों के आगे से गुजरने लगा।
मैट्रिक की परीक्षा में राजकीय बोर्ड के मेरिट लिस्ट में रहने वाले सभी बच्चों को सरकार की तरफ से सम्मानित किया गया था और शारदा उन सब में सबसे आगे थी। हमेशा पढ़ाई में अव्वल आने वाली लड़की--इतनी प्रतिभावान कि दूसरी लड़कियों को उनके माता-पिता पढ़ाई के मामले में शारदा का उदाहरण दिया करते थे-आज घरों में चौका बर्तन कर रही है?अरे वह तो पढ़ाई में इतनी अच्छी थी कि किसी भी प्रतियोगिता परीक्षा में अव्वल आ सकती थी, फिर उसने किसी नौकरी के लिए आवेदन क्यों नहीं किया? किसी स्कूल में भी तो नौकरी कर सकती थी...आजकल तो प्राइवेट स्कूल भी कितने सारे हैं.. फिर यह सब... क्यों?मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
सरिता भी हैरान थी कि शारदा और मैं पहले से कैसे परिचित हैं?कभी प्रश्न भरी निगाहों से मुझे देखती तो कभी चकित होकर शारदा को..। शारदा तो मानो जड़ सी हो गई थी-" अब सुमि दीदी को क्या जवाब दे?दीदी ने हमेशा उसका हौसला बढ़ाया था। जब जरूरत पड़ी, पैसों से भी दीदी उसकी मदद करती रही थी। उनका सपना था कि शारदा अपने नाम की तरह पढ़ाई में खूब आगे जाए, अच्छी नौकरी करे, दूसरी लड़कियों के लिए मिसाल बने,पर किस्मत के आगे किसकी चली है?"
वातावरण की खामोशी को तोड़ती सरिता ने शारदा से पूछा-" तुम सुमि को पहले से जानती हो क्या? क्या इनके यहाँ भी काम माँगने गई थी?" शारदा ने खुद को संभालते हुए चाय की ट्रे टेबल पर रख दी और बिना कोई जवाब दिए मेरे पैरों पर गिर पड़ी-"दीदी, मुझे माफ कर दो, मैं आपका सपना पूरा नहीं कर सकी, क्या करती मैं बेबस थी... बाहर वालों से तो लड़ती रही पर घर वालों से हार गयी। आपको संपर्क करने की बहुत कोशिश की, पर आप का कोई पता या फोन नंबर नहीं था मेरे पास,इसीलिए सब की बात मानकर न चाहते हुए भी मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़ी।"शारदा रो पड़ी ।सरिता अब तक मुझे प्रश्न भरी निगाहों से देख रही थी। मेरी तो समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ? पाँच-छ:साल पहले की शारदा मेरी आँखों के सामने आकर खड़ी हो गयी थी।
पतली-दुबली सी दो चोटी किये एक लड़की, जो सरकारी कार्यक्रम में बड़े सरकारी अफसरों द्वारा सम्मानित की जा रही थी क्योंकि पूरे राजकीय बोर्ड के मैट्रिक की परीक्षा में लड़कियों में उसका प्रथम स्थान था। 2500 रूपयों का चेक और सम्मान पत्र उसे दिया गया था और उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह उनका क्या करे ? कार्यक्रम की समाप्ति के पश्चात वह बाहर गेट पर अकेली खड़ी अपनी माँ का इंतजार कर रही थी।पहली बार मैं वहीं गेट पर शारदा से मिली थी। "क्या नाम है तुम्हारा?" मेरे पूछने पर सकपकाती हुई वह बोली," जी शारदा"। मैंने आगे कहा, "बहुत अच्छा रिजल्ट है तुम्हारा, अब आगे क्या करने का इरादा है?" मेरे पूछने पर वह सोच में पड़ गयी,फिर कहा," पता नहीं"।
"पता नहीं मतलब? आगे के लिए कुछ तो सोचा होगा... क्या बनना चाहती हो, क्या करोगी..?" मैंने पूछा।
वह बोली,"माँ से पूछ कर बताऊँगी कि आगे पढ़ना है कि नहीं?"
"क्याsss..?" मैं चौंक पड़ी। आगे पढ़ना है कि नहीं मतलब? माँ तुम्हें पढ़ने से क्यों मना करेगी?तुम तो पढ़ाई में इतनी अच्छी हो, तुम्हें तो शारदा माँ की तरह ज्ञान की देवी होना चाहिए…. शारदा का मतलब जानती हो?"
उसने कोई जवाब नहीं दिया, बस सामने से आती अपनी माँ को देखती रही। पता चला कि शारदा की माँ बाई यानी नौकरानी है और तीन-चार घरों में चौका-बरतन करती है।पिता कुछ नहीं करते,ऊपर से शराबी और जुआरी हैं।तीन छोटी बहनें और एक छोटा भाई भी है। शारदा घर में सब बच्चों में बड़ी है और छह - सात लोगों का परिवार उसकी माँ की कमाई से ही चलता है। शारदा की पढ़ाई में बहुत रुचि थी,इसलिए माँ उसका शौक पूरा करने के लिए अब तक उसे पढ़ा रही थी,लेकिन अब आगे पढ़ाने की घर की हैसियत नहीं थी। उसकी माँ उसे अपने साथ काम पर लगाना चाहती थी। पढ़ाई के लिए शारदा की लगन और उसकी बेबसी देखकर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उसी वक्त शारदा की माँ से कहा,"अगर शारदा पढ़ना चाहती है तो मैं इसे पढ़ाऊँगी।"मेरी बात सुनकर शारदा की आँखों में एक चमक सी आ गयी थी। बड़ी आशा भरी नजरों से वह अपनी माँ को देखने लगी थी। माँ ने दलील दी, "दीदी जी,शारदा पढ़ लिख कर क्या करेगी? मेरे साथ काम पर जाएगी, चार पैसे कमाएगी तो घर की हालत थोड़ी सुधरेगी।" मैंने शारदा की मां को समझाया- "तुम्हारी शारदा एक प्रतिभाशाली लड़की है। पढ़ाई में तेज है, अच्छे से पढ़ेगी, तो आगे अच्छी नौकरी करेगी, फिर तो तुम्हें भी काम करने की जरूरत नहीं रहेगी।आजकल सरकार लड़कियों को पढ़ाने और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए कितनी स्कीमें बना रही है...घर की हालत सुधरेगी ही नहीं, बहुत अच्छी हो जाएगी ।भाई- बहन भी पढ़-लिख जायेंगे और फिर शारदा की पढ़ाई का खर्चा मैं उठा रही हूँ तो तुम्हें परेशानी किस बात की है ?उसे इजाजत दे दो ताकि वह मेहनत से पढ़ाई करे।" बहुत समझाने पर बड़े बेमन से उसकी माँ ने उसे पढ़ने की इजाजत इस शर्त के साथ दी कि अगर कभी उसकी तबीयत बिगड़ी तो शारदा को उसकी जगह काम पर जाना होगा। शारदा ने सहर्ष वह शर्त स्वीकार कर ली और फिर उम्मीद भरी नजरों से मेरी तरफ देखने लगी, मानो कह रही हो, "दीदी, मैं पढ़ना चाहती हूँ,मेरा एडमिशन करवा दो।"
मैंने महिला कॉलेज में शारदा का दाखिला करवा दिया किताबें खरीद द़ीं और समय-समय पर उसे गाइड करने लगी।इंटरमीडिएट की परीक्षा शारदा ने फर्स्ट क्लास में पास की। यूनिवर्सिटी में उसका दूसरा स्थान था।
चहकती हुई वह रिजल्ट लेकर मेरे पास आई थी।मैंने भी उसे मिठाई खिलाई थी और ग्रेजुएट होने और प्रतियोगिता-परीक्षाओं में भाग लेने के लिए उत्साहित किया था। वह सचमुच कुछ बनना चाहती थी, इसीलिए अपनी मेहनत जारी रखी। फलस्वरूप,उसे स्कॉलरशिप भी मिलने लगी। समय-समय पर मैं भी आर्थिक रूप से उसकी मदद कर दिया करती थी। शारदा ने यूनिवर्सिटी में रैंक लाकर ग्रेजुएट किया।उसकी आँखों में सपने पंख फैलाने लगे थे। मैंने बैंक,राजकीय, राष्ट्रीय- हर स्तर की प्रतियोगिता परीक्षाओं के फॉर्म भरवाए और शारदा का एडमिशन एम.ए. में करवा दिया। शारदा ने मुझसे वादा किया कि शादी के चक्कर में ना पढ़कर पहले वह अपना करियर बनाएगी फिर अपने भाई-बहनों को आगे बढ़ाएगी।
इसी बीच मेरे पति का तबादला दूसरे राज्य में हो गया और मैं अपनी गृहस्थी समेट कर उनके साथ चली गयी। उन दिनों शारदा अपनी माँ के साथ अपनी नानी के घर कलकत्ते गयी हुई थी, इसीलिए, मैं न तो उससे मिल पायी, न ही उसे कुछ खबर कर पायी।दो-तीन महीने तक मैंने बराबर शारदा से संपर्क करने की कोशिश की पर शारदा के लौटने का कुछ पता नहीं चला। फिर तो मैं भी अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गयी... और आज अचानक शारदा से मुलाकात...क्या कहूँ मैं उससे..?वह मेरे पैरों के पास बैठी रोए जा रही थी।मैंने उसे उठाया, चुप कराया और उसके इस हाल का कारण पूछा। शारदा ने बताया, "दीदी मैं अपनी माँ के साथ मामा के घर कलकत्ते गई थी। वहाँ उन लोगों ने जबरन यह कह कर मेरी शादी करा दी कि ज्यादा पढ़ने से हमारी बिरादरी में लड़का मिलना मुश्किल हो रहा है,फिर मेरी छोटी बहनों की भी शादी करानी है...अगर मैं शादी नहीं करूँगी तो लोग तरह-तरह की बातें करेंगे और फिर मेरी बहनों की शादी में भी मुश्किल आएगी। मैं मना करती रही,लेकिन किसी ने मेरी एक न सुनी और मेरी शादी कर दी। लड़का भी कुछ पढ़ा-लिखा नहीं है, मोबाईल टावर लगाने के काम में मजदूरी करता है। जब जी में आता है, काम करता है, नहीं तो दोस्तों के साथ जुआ खेलता है ।सास, जेठानियाँ सभी नौकरानी का काम करती हैं।मैं स्कूल में पढ़ाना चाहती थी, पर सास और पति ने इजाजत नहीं दी।फिर भी लगभग विद्रोहिणी बनकर मैंने किसी स्कूल में अप्लाई किया तो स्कूल वाले नियुक्ति पत्र के लिए ऊँची रकम माँगने लगे।इतने पैसे मैं कहाँ से लाती?घर में ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया तो सास ने पढ़े लिखे होने का ताना देकर बच्चों को भगा दिया। इसी बीच मुझे बेटी पैदा हो गयी।सास, पति, जेठानियाँ- सभी इस बात का भी ताना देती रहती हैं कि मैंने उन्हें पोता नहीं दिया। मेरी बेटी को दूध तक पीने नहीं देती हैं और अब वे इस उम्मीद में बैठी है कि लड़की बड़ी हो जाए तो उसे भी काम पर लगा दें। कहीं प्राईवेट में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी करनी चाही तो वहाँ के एक कर्मचारी ने मेरे शरीर का फायदा उठाना चाहा।जब मैंने उसके खिलाफ शिकायत की तो उसने मेरे पति से मेरी शिकायत कर दी।पति और ससुराल वालों ने मुझे ही गलत ठहराया और मेरी बेटी के साथ मुझे घर से निकाल दिया।मायके वालों ने यह कहकर साथ देने से मना कर दिया कि तेरी शादी कर दी है,अब तू हमारे लिए परायी है।मेरी कुछ समझ नहीं आया कि मैं क्या करूँ तो बस चुपचाप बेटी को लेकर किसी ट्रेन के जनरल डिब्बे में जाकर बैठ गई ।ट्रेन शायद यहाँ की थी तो मैं यहाँ आ गई।कई दिनों तक इधर-उधर भटकने के बाद संयोग से सरिता मैडम के यहाँ काम मिल गया। पास में ही रहने का एक छोटा सा कमरा भी मिल गया है।अब कम से कम बेटी के लिए दूध और रहने का ठिकाना तो हो जाता है.." बोलते हुए शारदा फूट-फूट कर रोने लगी। सरिता और मैं हतप्रभ, बस, उसे देखे जा रहे थे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इसे किस्मत का दोष कहूँ या सड़ी-गली सामाजिक मानसिकता,जो बेड़ियों की तरह आज भी लड़कियों के भविष्य से जकड़ी हुई हैं ?...लड़कियाँ क्या केवल विवाह करने और बच्चा पैदा करने के लिए जन्म लेती हैं ?कोई कुछ करना चाहे तो समाज उसकी राह में इतने रोड़े क्यों अटकाता है? बेटियों को बचाने और बढ़ाने का दम भरने वाली सरकारें, वास्तव में लड़कियों के लिए कुछ करती भी हैं या नहीं? अच्छे रिजल्ट पर विद्यार्थियों को सम्मानित करने वाले लोग फिर पलटकर कभी उन विद्यार्थियों की खोज खबर भी लेते हैं क्या... कौन क्या बनना चाहता है...उसके पास क्या साधन है... परिस्थितियाँ अनुकूल हैं या नहीं..किसी को कोई मदद चाहिए या नहीं.. किसी को भी इस बात की चिंता नहीं है... समारोह किया,पुरस्कार दिए और भूल गए। हमारे समाज में लोगों को अपने अलावा कुछ नजर ही नहीं आता है क्या..? क्या खाक समाज लड़कियों के लिए बदल रहा है..?कोई लड़की खुद से कुछ करना चाहे तो कहीं पैसा तो कहीं उसका शरीर दुश्मन बनने लग जाता है। कोई हाथ बढ़ाकर प्रतिभाशाली लड़कियों की मदद क्यों नहीं करता..?शारदा जैसी कितनी प्रतिभावान लड़कियाँ हर साल रूढ़िवादी सामाजिक परिस्थितियों और भ्रष्टाचार का शिकार बन जाती होंगी। सरकार में इतनी स्कीमें बनती हैं, करोड़ों रुपए खर्च हो जाते हैं,सरकारी फिगर तैयार हो जाती है पर वास्तविक रूप से जरूरतमंद लड़कियों तक चीजें पहुँच रही हैं या नहीं...क्या कोई देखने वाला नहीं है..? शारदा की तरह ही कितने प्रतिभाशाली लड़के-लड़कियों के सपने साकार होने से पहले ही कुचल दिए जाते होंगे.. समाज को इसकी कोई फिक्र नहीं है..ऐसे प्रतिभाशाली बच्चों की ओर ध्यान देने वाला, उनकी मदद करने वाला कोई क्यों आगे नहीं आता..?"मैं आत्मग्लानि से भर गयी-"मैंने शारदा को क्यों छोड़ा ? उसे ढ़ूँढ़ने की कोशिश क्यों नहीं की? क्यों अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो कर उसे भूल गई? अपनी बेबसी से लड़ते हुए उसने मुझे कितना याद किया होगा?"... तरह-तरह के सवाल मेरे मन में कौंधने लगे।
तभी शारदा की बेटी जाग गई और अपने नन्हें- नन्हें हाथों को फैलाकर अँगड़ाइयाँ लेने लगी। शारदा ने अपने आँसू पोछे और बेटी को अपनी गोद में उठा लिया। फिर, मेरी तरफ देख कर कहने लगी-"दीदी तुम देखना, मैं अपनी बेटी को खूब पढ़ाऊँगी और जो सपने आपने मेरी आँखों में जगाये थे, उसे मैं इसके द्वारा पूरे करूँगी... मैं तो हालात से नहीं लड़ पायी पर अपनी बेटी को मैं बुरी परिस्थितियों का शिकार नहीं होने दूँगी। दीदी, आप इसे आशीर्वाद दीजिए ताकि यह बड़ी होकर आपका सपना पूरा कर सके।"
मैंने शारदा के आशावादी हौसले को मन ही मन सलाम किया और उसकी नन्हीं बेटी को अपनी गोद में ले लिया।वह नन्हीं शारदा मेरी तरफ देख कर मुस्कुरा उठी और एकदम से मेरी ओर ऐसे देखने लगी मानो कह रही हो, "हाँ दीदी, मैं तैयार हूँ अपनी माँ का सपना पूरा करने के लिए, जो आप ने ही उन्हें दिखाया था। आप मुझे गाइड करेंगी न..?"
मेरी आंखें छलक उठीं और मैंने नहीं शारदा को अपने कलेजे से चिपका लिया। मन ही मन में मैंने यह संकल्प किया कि शारदा की मेहनत को मैं व्यर्थ नहीं जाने दूँगी, अभी उसकी उम्र ही क्या है?कोशिश करके उसके लिए परिस्थितियाँ अनुकूल बनाऊँगी और उसकी बेटी को कभी भी सामाजिक दावाग्नि में जलने नहीं दूँगी। शारदा के उन सभी सपनों को पूरा करने में उसकी हर संभव मदद करूँगी, जो उसकी बेटी की छोटी-नन्ही आँखों में मुझे तैरते हुए दिखाई देने लगे थे।
मैंने उसी वक्त शारदा का हाथ पकड़ा और सरिता से कहा- "सरिता, हमें हमारे बच्चों के लिए एक बहुत अच्छी ट्यूशन टीचर मिल गई है। सरिता भी मुस्कुरा दी- "हाँ हाँ.. क्यों नहीं..?"
शारदा को तो मानो मन की मुराद मिल गयी थी।वह प्यार से 'दीदी' कह कर मुझसे लिपट गयी। मैं भी प्यार से उसकी पीठ सहलाने लगी। सबकी आँखें नम थीं और वह नन्हीं शारदा सामाजिक दुरूहता को मानो धत्ता बताती हुई खिलखिला कर हँस रही थी।
अर्चना अनुप्रिया©
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